Thursday, December 2, 2010
पूंजीवाद की सेवक पत्रकारिता और जन पक्षधरता की पत्रकारिता में फर्क है
शेष नारायण सिंह
१९७३ में जब मैंने शिक्षक के रूप में काम शुरू किया तो एक गुरू ने मन्त्र दिया था कि जो भी ताक़तवर होगा उसे पूंजीपति अपने कब्जे में ले लेगा . गंवई माहौल में बात कही गयी थी. वहां सबसे बड़ा पूंजीपति गावं का वह साहूकार ही होता था जो लोगों को कुछ पैसे कौड़ी उधार दे देता था.शादी व्याह में मदद कर देता था ,क़र्ज़ दे देता था . इलाके के सबसे गरीब आदमी टिहूरी का बेटा जब तहसील में बाबू हो गया तो सेठ ने उसे अपना आदमी घोषित कर दिया. कुछ कपड़ा लत्ता बनवा दिया जिसे पहन कर वह दफ्तर जा सके. सबको लगा कि ठीक ही है . सामाजिक आर्थिक स्थिति में बहुत फर्क नहीं था इसलिए गैप ज्यादा बड़ा नहीं दिखा . दिल्ली आने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन आदि क्रांतिकारियों से मुलाक़ात हुई जो मानते थे कि पिछली सदी के अंत तक भारत में इन्किलाब आ जाएगा. ज़ाहिर है कि यह विचार ख्याली पुलाव भर था . लेकिन जब धीरे धीरे उन्हीं क्रांतिकारियों को सिस्टम का हिस्सा बनते देखा तो बात समझ में आनी शुरू हुई कि गाँव में जिसे कॉमरेड शीतला गुप्ता ने पूंजीपति कहा था वह वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था थी . दिल्ली में देखा कि पूंजीवादी व्यवस्था ने राजनीति , नौकरशाही ,मीडिया सबको काबू में कर रखा है . अखबारों में नौकरी शुरू की और जब ज़रा सीनियर लेवल पर पंहुचे तो ऊपर से हिदायत आ जाती थी कि कुछ लोगों के खिलाफ खबर नहीं लिखना है . नीचे वालों को समझाया जाता था लेकिन तरीका ऐसा अपनाया जाता था कि उन्हें यह मुगालता बना रहे कि वे प्रेस की तथाकथित आज़ादी का लाभ उठा रहे हैं . जब टेलीविज़न में काम करने का अवसर मिला तो शुरुआती दौर दिलचस्प था .अपने देश में २४ घंटे की टी वी ख़बरों का वह आदिकाल था . अखबार से आये एक व्यक्ति के लिए बहुत मजेदार स्थिति थी . जो खबर जहां हुई ,अगर उसकी बाईट और शाट हाथ आ गए तो उन्हें लगाकर सही बात रखने में मज़ा बहुत आता था. लेकिन छः महीने के अन्दर पूंजीवादी व्यवस्था ने ऐसा सिस्टम बना दिया कि वही खबरें जाने लगीं जो संस्थान के हित में रहती थी. पीपली लाइव के अनुषा रिज़वी और महमूद फारूकी उन्हीं दिनों उसी न्यूज़ रूप में इस विकासमान व्यवस्था को देख रहे थे. पीपली लाइव की स्क्रिप्ट को उनके उस दौर के अनुभव से सीधे जोड़कर देखा जा सकता है . उसी संस्थान में बहुत सारे बहुत मामूली स्तर के लोगों को महान बनाने की कार्यशाला भी चल रही थी . और टेलिविज़न की चकाचौंध के शिकार ज़्यादातर लोगों को वही मीडियाकर लोग सर्वज्ञ बनाकर पेश कर दिए गए. दलाल शिरोमणि नीरा राडिया ने जो खेल किया है यह उसी पूंजीवादी प्रक्रिया का नतीजा है. अपने को भाग्यविधाता समझ बैठे पत्रकारों के उस मुगालते को हवा देकर नीरा राडिया अपना धंधा डंके की चोट पर चला रही थीं लेकिन कहीं कुछ गड़बड़ हो गयी . सरकार में बैठे किसी ईमानदार अफसर ने सिस्टम का ही फायदा उठाकर दिल्ली की सत्ता की गलियों में घूम रहे सत्ता के दलालों को पब्लिक डोमेन में ला दिया . . आज पत्रकारिता के चोले में अपना अन्य धंधा चला रहे दिल्ली के पावर ब्रोकर बेनकाब खड़े हैं. अपनी बिरादरी को बचाने की बड़े पैमाने पर कोशिश चल रही है . कोई ट्वीट पर अपनी बात कह रहा है ,तो कोई टेलिविज़न के कार्यक्रमों के तमाशे की मार्फ़त कौम को समझा रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि पत्रकारिता के ताक़तवर माध्यम में इन दलालनुमा पत्रकारों ने दाग तो लगाया ही है . पत्रकारिता से जुड़े लोगों और लोकशाही की पक्षधर जमातों के लिए भी चुनौती है कि पूंजीवाद की सेवक पत्रकारिता और जन पक्षधरता की पत्रकारिता के बीच जो बहुत बारीक लाइन है उसको बड़ी दीवार बनाने की मुहिम चलायें वरना इस देश के विकासमान लोकतंत्र का बहुत नुकसान हो जाएगा
Posted by शेष नारायण सिंह at 10:53 AM
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