Friday, December 3, 2010

पेड न्यूज़ या खबर के नाम पर धंधा. पत्रकारिता पर हावी व्यवसायिकता.-4/12/10

पेड न्यूज़ या खबर के नाम पर धंधा. पत्रकारिता पर हावी व्यवसायिकता.

अनकही पर 1:34 PM प्रस्तुतकर्ता रजनीश के झा (Rajneesh K Jha)

(I HOPE THIS 'CHURNING' CAN REACH TO SOME CONCLUSION AND FIND AND UPDATE SOME RIGHT GUIDELINES AND FRAMEWORK FOR JOURNALISM (OR P.R.O.SHIP-THAT'S A SEPRATE ISSUE!!!),THAT SUPPOSE TO BE MISSION AND VERY OBJECTIVE IN STANCES AND NOT JUST A JOB OR A NAUKARI TO EARN LIVELIHOOD OR TO GROW RICHER ONLY,THOUGH PEOPLE NEED TO BE PAID WELL BY THEIR RESPECTIVE COMPANY IF THEY DESERVE SO,AND AS PER COMPANY'S RULE!!!....VIBHA TAILANG)

कुछ लिखने से पहले तस्वीर पर एक नजर मारने का आग्रह करूंगा. स्टार न्यूज़, आज तक, सहारा समय या फिर फटफटिया न्यूज़ के लिए तेज. वैसे और भी चैनल या कहें कि लगभग सभी खबरिया चैनल पर इस तरह की तस्वीरें आज कल आम हैं. मैं खबरिया चैनल पर खबर देखने कम ही जाता हूँ कारण वास्तविक खबर तो हमारे ब्लॉग कि दुनिया से आती है मगर कल अचानक ही चैनल पलटते पलटते खबरों के बाजारी दुनियां में आ गया.

आप ही निर्णय करें कि ये न्यूज़ है या विज्ञापन. वैसे तो इसे न्यूज़ की शकल में दिखाया जाता है, सिर्फ मसाला नहीं बल्की इन ख़बरों को वास्तविक दुनियां से जोड़ने में मीडिया हाउस हर तिकड़म अपनाता है. मगर जब जब आप इस तरह की ख़बरों को खबरिया चैनल पर देखते होंगे तो क्या आपके जेहन में कभी ये विचार आया होगा कि ये पेड न्यूज़ क्या होता है.

पेड न्यूज़ का सबसे बड़ा और तजा उदहारण या कहें की सबूत है ये तस्वीरें. जी हाँ पेड न्यूज़ का सन्दर्भ सिर्फ चुनाव तक सिमित नहीं रह सकता कमाने का जरिया बनी खबरिया चैनल साल भर चलने वाला पेड न्यूज़ कैसे इजाद करता है इसका प्रमाण है ये तस्वीरें.

व्यावसायिकता ने हमारे मीडिया की कमर कुछ यूँ तोडी कि बाजारू कम्पनियाँ लोगों के मन मस्तिस्क पर विस्वास की छाप के बीच पैठ बनाने के लिए मीडिया का खरीदार बन बैठा और बने भी क्यूँ नहीं अगर हमारे देश का मीडिया बिकने के लिए तैयार बैठा हो तो. बरखा दत्त और वीर संघवी ने इस बिकाऊ होती पत्रकारिता की हकीकत से वाकई आम लोगों को रूबरू करा दिया.

वैसे मीडिया के बिकाऊ होने की बात पूर्व में कई टी वी मीडिया की संपादक स्वीकार कर ढिठाई से इसकी पैरवी भी कर चुके हैं मगर क्या हम खबर के साथ विज्ञापन को देखने को विवश है? या हमारे देश का बिका हुआ पत्रकार ने हमें खबर के नाम पर विज्ञापन दिखने का ठेका ले रखा है? वैसे ढीठ मीडिया यहाँ ये कहने से नहीं हिचकता कि हमें मत देखो क्या बेशर्मी है ?

नए शताब्दी में जहाँ हम विकास की और बेतहासा दौड़ लगा रहे हैं और शायद दौड़ में आगे भी हैं वहीँ हम ने अपने देश की जड़ें खोखली करने में भी कोई कसार नहीं छोड़ी है और आने वाले भारत का सबसे बड़ा गुनाहगार हमारा बिकाऊ और दलाल मीडिया ही बनने वाला है.

क्या ये सिर्फ अनकही चीखें हैं ?

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