Thursday, September 1, 2011

अण्णा, यानी व्यवस्था के शस्त्रागार का एक नया हथियार-August 31, 2011(One more point of view..VT)

अण्णा, यानी व्यवस्था के शस्त्रागार का एक नया हथियार
by Dilip Mandal on Wednesday, August 31, 2011 at 1:12pm

समकालीन तीसरी दुनिया / अगस्त- सितम्बर 2011 का संपादकीय



आनंद स्वरूप वर्मा



जो लोग यह मानते रहे हैं और लोगों को बताते रहे हैं कि पूंजीवादी और साम्राज्यवादी लूट पर टिकी यह व्यवस्था सड़ गल चुकी है और इसे नष्ट किये बिना आम आदमी की बेहतरी संभव नहीं है उनके बरक्स अण्णा हजारे ने एक हद तक सफलतापूर्वक यह दिखाने की कोशिश की कि यह व्यवस्था ही आम आदमी को बदहाली से बचा सकती है बशर्ते इसमें कुछ सुधार कर दिया जाय। व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र से जिन लोगों का मोहभंग हो रहा था उस पर अण्णा ने एक ब्रेक लगाया है। अण्णा ने सत्ताधारी वर्ग के लिए आक्सीजन का काम किया है और उस आक्सीजन सिलेंडर को ढोने के लिए उन्हीं लोगों के कंधों का इस्तेमाल किया है जो सत्ताधारी वर्ग के शोषण के शिकार हैं। उन्हें नहीं पता है कि वे उसी निजाम को बचाने की कवायद में तन-मन-धन से जुट गये जिसने उनकी जिंदगी को बदहाल किया। देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जुझारू संघर्षों की ताप से झुलस रहे सत्ताधारियों को अण्णा ने बहुत बड़ी राहत पहुंचाई है। शासन की बागडोर किसके हाथ में हो इस मुद्दे पर सत्ताधारी वर्ग के विभिन्न गुटों के बीच चलती खींचतान से आम जनता का भ्रमित होना स्वाभाविक है पर जहां तक इस वर्ग के उद्धारक की साख बनाये रखने की बात है, विभिन्न गुटों के बीच अद्भुत एकता है। यह एकता 27 अगस्त को छुट्टी के दिन लोकसभा की विशेष बैठक में देखने को मिली जब कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी और भाजपा की सुषमा स्वराज दोनों के सुर एक हो गये और उससे जो संगीत उपजा उसने रामलीला मैदान में एक नयी लहर पैदा कर दी। सदन में शरद यादव के भाषण से सबक लेते हुए अगले दिन अपना अनशन समाप्त करते समय अण्णा ने बाबा साहेब आंबेडकर को तो याद ही किया, अनशन तोड़ते समय जूस पिलाने के लिए दलित वर्ग और मुस्लिम समुदाय से दो बच्चों को चुना।



अण्णा हजारे का 13 दिनों का यह आंदोलन भारत के इतिहास की एक अभूतपूर्व और युगांतरकारी घटना के रूप में रेखांकित किया जाएगा। इसलिए नहीं कि उसमें लाखों लोगों की भागीदारी रही या टीवी चैनलों ने लगातार रात दिन इसका प्रसारण किया। किसी भी आंदोलन की ताकत या समाज पर पड़ने वाले उसके दूरगामी परिणामों का आकलन मात्र इस बात से नहीं किया जा सकता कि उसमें लाखों लोगों ने शिरकत की। अगर ऐसा होता तो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से लेकर रामजन्मभूमि आंदोलन, विश्वनाथ प्रताप सिंह का बोफोर्स को केंद्र में रखते हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, मंडल आयोग की रिपोर्ट पर आरक्षण विरोधी आंदोलन जैसे पिछले 30-35 वर्षों के दौरान हुए ऐसे आंदोलनों में लाखों की संख्या में लोगों की हिस्सेदारी रही। किसी भी आंदोलन का समाज को आगे ले जाने या पीछे ढकेलने में सफल/असफल होना इस बात पर निर्भर करता है कि उस आंदोलन को नेतृत्व देने वाले कौन लोग हैं और उनका ‘विजन’ क्या है? अब तक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी बना कर जनभावनाओं का दोहन किया जाता रहा है। अण्णा के व्यक्तित्व की यह खूबी है कि इस खतरे से लोग निश्चिंत हैं। उन्हें पता है कि रालेगण सिद्धि के इस फकीरनुमा आदमी को सत्ता नहीं चाहिए।



अण्णा का आंदोलन अतीत के इन आंदोलनों से गुणात्मक तौर पर भिन्न है क्योंकि आने वाले दिनों में भारतीय समाज में बदलाव के लिए संघर्षरत शक्तियों के बीच यह ध्रुवीकरण का काम करेगा। किसी भी हालत में इस आंदोलन के मुकाबले देश की वामपंथी क्रांतिकारी शक्तियां न तो लोगों को जुटा सकती हैं और न इतने लंबे समय तक टिका सकती हैं जितने लंबे समय तक अण्णा हजारे रामलीला मैदान में टिके रहे। इसकी सीधी वजह यह है कि यह व्यवस्था आंदोलन के मूल चरित्र के अनुसार तय करती है कि उसे उस आंदोलन के प्रति किस तरह का सुलूक करना है। मीडिया भी इसी आधार पर निर्णय लेता है। आप कल्पना करें कि क्या अगर किसी चैनल का मालिक न चाहे तो उसके पत्रकार या कैमरामेन लगातार अण्णा का कवरेज कर सकते थे? क्या कारपोरेट घराने अपनी जड़ खोदने वाले किसी आंदोलन को इस तरह मदद करते या समर्थन का संदेश देते जैसा अण्णा के साथ हुआ? भारत सरकार के गृहमंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन वर्षों में यहां के एनजीओ सेक्टर को 40 हजार करोड़ रुपये मिले हैं- उसी एनजीओ सेक्टर को जिससे टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, किरन बेदी, संदीप पांडे, स्वामी अग्निवेश जैसे लोग घनिष्ठ/अघनिष्ठ रूप से जुड़े/बिछड़े रहे हैं। इस सारी जमात को उस व्यवस्था से ही यह लाभ मिल रहा है जिसमें सडांध फैलती जा रही है, जो मृत्यु का इंतजार कर रही है और जिसे दफनाने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में उत्पीड़ित जनता संघर्षरत है। आज इस व्यवस्था का एक उद्धारक दिखायी दे रहा है। वह भले ही 74 साल का क्यों न हो, नायकविहीन दौर में उसे जिंदा रखना जरूरी है।



क्या इस तथ्य को बार बार रेखांकित करने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार का मूल स्रोत सरकार की नवउदारवादी आर्थिक नीतियां हैं? इन नीतियों ने ही पिछले 20-22 वर्षों में इस देश में एक तरफ तो कुछ लोगों को अरबपति बनाया और दूसरी तरफ बड़ी संख्या में मेहनतकश लोगों को लगातार हाशिये पर ठेल दिया। इन नीतियों ने कारपोरेट घरानों के लिए अपार संभावनाओं का द्वार खोल दिया और जल, जंगल, जमीन पर गुजर बसर करने वालों को अभूतपूर्व पैमाने पर विस्थापित किया और प्रतिरोध करने पर उनका सफाया कर दिया। इन नीतियों की ही बदौलत आज मीडिया को इतनी ताकत मिल गयी कि वह सत्ता समीकरण का एक मुख्य घटक हो गया। जिन लोगों को इन नीतियों से लगातार लाभ मिल रहा है वे भला क्यों चाहेंगे कि ये नीतियां समाप्त हों। इन नीतियों के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में जो उथल-पुथल चल रही है उससे सत्ताधारी वर्ग के होश उड़े हुए हैं। ऐसे में अगर कोई ऐसा व्यक्ति सामने आता है जिसका जीवन निष्कलंक हो, जिसके अंदर सत्ता का लोभ न दिखायी देता हो और जो ऐसे संघर्ष को नेतृत्व दे रहा हो जिसका मकसद समस्या की जड़ पर प्रहार करना न हो तो उसे यह व्यवस्था हाथों हाथ लेगी क्योंकि उसके लिए इससे बड़ा उद्धारक कोई नहीं हो सकता। अण्णा की गिरफ्तारी, रिहाई, अनशन स्थल को लेकर विवाद आदि राजनीतिक फायदे-नुकसान के आकलन में लगे सत्ताधारी वर्ग के आपसी अंतर्विरोध की वजह से सामने आते रहे हैं। इनकी वजह से मूल मुद्दे पर कोई फर्क नहीं पड़ता।



अण्णा के आंदोलन ने स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गांधीजी द्वारा चलाये गये सत्याग्रहों और आंदोलनों की उन लोगों को याद दिला दी जिन्होंने तस्वीरों या फिल्मों के माध्यम से उस आंदोलन को देखा था। गांधी के समय भी एक दूसरी धारा थी जो गांधी के दर्शन का विरोध करती थी और जिसका नेतृत्व भगत सिंह करते थे। जहां तक विचारों का सवाल है भगत सिंह के विचार गांधी से काफी आगे थे। भगत सिंह ने 1928-30 में ही कह दिया था कि गांधी के तरीके से हम जो आजादी हासिल करेंगे उसमें गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज सत्ता पर काबिज हो जायेंगे क्योंकि व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होगा। तकरीबन 80 साल बाद रामलीला मैदान से अण्णा हजारे को भी यही बात कहनी पड़ी कि गोरे अंग्रेज चले गये पर काले अंग्रेजों का शासन है। इन सबके बावजूद भगत सिंह के मुकाबले गांधी को उस समय के मीडिया ने और उस समय की व्यवस्था ने जबर्दस्त ‘स्पेस’ दिया। वह तो टीआरपी का जमाना भी नहीं था क्योंकि टेलीविजन का अभी आविष्कार ही नहीं हुआ था। तो भी शहीद सुखदेव ने चंद्रशेखर आजाद को लिखे एक पत्र में इस बात पर दुःख प्रकट किया है कि मीडिया हमारे बयानों को नहीं छापता है और हम अपनी आवाज जनता तक नहीं पहुंचा पाते हैं। जब भी व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने वाली ताकतें सर उठाती हैं तो उन्हें वहीं खामोश करने की कोशिश होती है। अगर आप अंदर के रोग से मरणासन्न व्यवस्था को बचाने की कोई भी कोशिश करते हुए दिखायी देते हैं तो यह व्यवस्था आपके लिए हर सुविधा मुहैया करने को तत्पर मिलेगी।



अण्णा हजारे ने 28 अगस्त को दिन में साढ़े दस बजे अनशन तोड़ने के बाद रामलीला मैदान से जो भाषण दिया उससे आने वाले दिनों के उनके एजेंडा का पता चलता है। एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने उन सारे मुद्दों को भविष्य में उठाने की बात कही है जो सतही तौर पर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई का आभास देंगे लेकिन बुनियादी तौर पर वे लड़ाइयां शासन प्रणाली को और चुस्त-दुरुस्त करके इस व्यवस्था को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा टिकाऊ, दमनकारी और मजबूत बना सकेंगी। अण्णा का आंदोलन 28 अगस्त को समाप्त नहीं हुआ बल्कि उस दिन से ही इसकी शुरुआत हुई है। रामलीला मैदान से गुड़गांव के अस्पताल जाते समय उनकी एंबुलेंस के आगे सुरक्षा में लगी पुलिस और पीछे पल पल की रिपोर्टिंग के लिए बेताब कैमरों से दीवाल पर लिखी इबारत को पढ़ा जा सकता है। व्यवस्था के शस्त्रागार से यह एक नया हथियार सामने आया है जो व्यवस्था बदलने की लड़ाई में लगे लोगों के लिए आने वाले दिनों में एक बहुत बड़ी चुनौती खड़ी करेगा।



आनंद स्वरूप वर्मा

29 August 2011

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