सोशल मीडिया और बिहार की सत्ता : फेसबुक पर लिखने पर दो लेखक निलंबित
by Pramod Ranjan on Saturday, September 17, 2011 at 2:23am
प्रमोद रंजन
''पहले वे आए यहूदियों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं यहूदी
नहीं था/ फिर वे आए कम्यूनिस्टों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला,
क्योंकि मैं कम्यूनिस्ट नही था/ फिर वे आए मजदूरों के लिए और मैं कुछ
नहीं बोला क्योंकि मैं मजदूर नही था/ फिर वे आए मेरे लिए, और कोई नहीं
बचा था, जो मेरे लिए बोलता..।'' - पास्टएर निमोलर, हिटलर काल का एक जर्मन पादरी
बिहार में पिछले कुछ वर्षों से जो कुछ हो रहा है, वह भयावह है। विरोध
में जाने वाली हर आवाज को राजग सरकार क्रूरता से कुचलती जा रही है। आपसी
राग-द्वेष में डूबे और जाति -बिरादरी में बंटे बिहार के बुद्धिजीवियों के
सामने तानाशाही के इस नंगे नाच को देखते हुए चुप रहने के अलावा शायद कोई
चारा भी नहीं बचा है।
आज (16 सितंबर, 2011) को बिहार विधान परिषद ने अपने दो कर्मचारियों को
फेसबुक पर सरकार के खिलाफ लिखने के कारण निलंबित कर दिया। ये दो कर्मचारी
हैं कवि मुसाफिर बैठा और युवा आलोचक अरूण नारायण।
मुसाफिर बैठा को दिया गया निलंबन पत्र इस प्रकार है - '' श्री मुसाफिर
बैठा, सहायक, बिहार विधान परिषद सचिवालय को परिषद के अधिकारियों के
विरूद्ध असंवैधानिक भाषा का प्रयोग करने तथा - 'दीपक तले अंधेरा, यह
लोकोक्ति जो बहुत से व्यक्तियों, संस्थाओं और सत्ता प्रतिष्ठानों पर
लागू होती है। बिहार विधान परिषद, जिसकी मैं नौकरी करता हूं, वहां
विधानों की धज्जियां उडायी जाती हैं'- इस तरह की टिप्पणी करने के कारण
तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाता है।''
अरूण नारायण को दिये गये निलंबल पत्र के पहले पैराग्राफ में उनके द्वारा
कथित रूप से परिषद के पूर्व सभापति अरूण कुमार के नाम आए चेक की हेराफेरी करने का
आरोप लगाया गया है, जबकि इसी पत्र के दूसरे पैराग्राफ में कहा गया है कि
परिषद में सहायक पद पर कार्यरत अरूण कुमार (अरूण नारायण) को
''प्रेमकुमार मणि की सदस्यरता समाप्त करने के संबंध में सरकार एवं
सभापति के विरूद्ध असंवैधानिक टिप्पाणी देने के कारण तत्कासल प्रभाव से
निलंबित किया जाता है''। इन दोनों पत्रों को बिहार विधान परिषद के सभापति
व भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठि नेता ताराकांत झा ''के आदेश से'' जारी
किया गया है।
हिंदी फेसबुक की दुनिया में भी कवि मुसाफिर बैठा अपनी बेबाक टिप्पिणियों
के लिए जाने जाते हैं। अरूण नारायण ने अभी लगभग एक महीने पहले ही फेसबुक
पर एकांउट बनाया था। उपरोक्तण जिन टिप्पीणियों का जिक्र इन दोनों को
निलंबित करते हुए किया गया है, वे फेसबुक पर ही की गयीं थीं।
फेस बुक पर टिप्पणी करने के कारण सरकारी कर्मचारी को निलंबित करने का
संभवत: यह कम से कम किसी हिंदी प्रदेश का पहला उदाहरण है और इसके पीछे के
उद्देश्य गहरे हैं।
हिंदी साहित्य की दुनिया के लिए मुसाफिर और
अरूण के नाम अपरिचित नहीं हैं। मुसाफिर बैठा का एक कविता संग्रह 'बीमार
मानस का गेह' पिछले दिनों ही प्रकाशित हुआ है। मुसाफिर ने 'हिंदी की
दलित कहानी' पर पीएचडी की है। अरूण नारायण लगातार पत्र पत्रिकाओं में
लिखते रहते हैं, इसके अलावा बिहार की पत्रकारिता पर उनका एक महत्वरपूर्ण
शोध कार्य भी है।
मुसाफिर और अरूण को निलंबित करने के तीन-चार महीने पहले बिहार विधान परिषद ने
उर्दू के कहानीकार सैयद जावेद हसन को नौकरी से निकाल दिया था। विधान
परिषद में उर्दू रिपोर्टर के पद पर कार्यरत रहे जावेद का एक कहानी संग्रह
(दोआतशा) तथा एक उपन्या्स प्रकाशित है। वे 'ये पल' नाम से एक छोटी से
पत्रिका भी निकालते रहे हैं।
आखिर बिहार सरकार की इन कार्रवाइयों का उद्देश्य क्या है ?
बिहार का मुख्यधारा का मीडिया अनेक निहित कारणों से राजग सरकार के चारण की भूमिका
निभा रहा है। बिहार सरकार के विरोध में प्रिंट मीडिया में कोई खबर
प्रकाशित नहीं होती, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विरले कोई खबर चल जाती
है, तो उनका मुंह विज्ञापन की थैली देकर या फिर विज्ञापन बंद करने की
धमकी देकर बंद कर दिया जाता है। लेकिन समाचार के वैकल्पिक माध्य्मों ने
नीतीश सरकार की नाक में दम कर रखा है। कुछ छोटी पत्रिकाएं, पुस्तिकाएं
आदि के माध्यम से सरकार की सच्चाटईयां सामने आ जा रही हैं। पिछले कुछ
समय से फेस बुक की भी इसमें बडी भूमिका हो गयी है। वे समाचार, जो
मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में से बडी मेहनत और काफी खर्च करके सुनियोजित तरीके से गायब कर दिये जा रहे हैं, उनका
जिक्र, उनका विश्लेषण फेसबुक पर मौजूद लोग कर रहे हैं। नीतीश सरकार के
खिलाफ लिखने वाले अधिकांश लोग फेसबुक पर हिंदी में काम कर रहे हैं,
जिनमें हिंदी के युवा लेखक प्रमुख हैं।
वस्तुत: इन दो लेखक कर्मचारियों का निलंबन, पत्रकारों को खरीद लेने के बाद राज्य सरकार द्वारा अब लेखकों पर काबू करने के लिए की गयी कार्रवाई है। बडी पूंजी के सहारे चलने वाले अखबारों और चैनलों पर लगाम लगाना तो सरकार के
लिए बहुत मुश्किल नहीं था लेकिन अपनी मर्जी के मालिक, बिंदास लेखकों पर नकेल कसना संभव
नहीं हो रहा था। वह भी तब, जब मुसाफिर और अरूण जैसे लेखक सामाजिक परिवर्तन की
लडाई में अपने योगादान के प्रति प्रतिबद्ध हों।
ऐसे ही एक और लेखक प्रेमकुमार मणि भी काफी समय से राजग सरकार के लिए
परेशानी का सबब बने हुए थे। मणि नीतीश कुमार के मित्र हैं और जदयू के
संस्थापक सदस्यों में से हैं। उन्हें पार्टी ने साहित्य के (राज्यपाल के) कोटे से
बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाया था। लेकिन उन्होंने समान स्कूल
शिक्षा प्रणाली आयोग, भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को माने जाने की मांग
की तथा इस वर्ष फरवरी में नीतीश सरकार द्वारा गठित सवर्ण आयोग का विरोध
किया। वे राज्य में बढ रहे जातीय उत्पीडन, महिलाओं पर बढ रही हिंसा तथा
बढती असमानता के विरोध में लगातार बोल रहे थे। नीतीश कुमार ने मणि को पहले पार्टी से 6 साल के लिए निलंबित करवाया। उसके कुछ दिन बाद उनकेघर रात में कुछ अज्ञात लोगों ने घुस कर उनकी जान लेने की कोशिश की। उस
समय भी बिहार के अखबारों ने इस खबर को बुरी तरह दबाया। (देखें, फारवर्ड
प्रेस, जून, 2011 में प्रकाशित समाचार ' प्रेमकुमार मणि, एमएलसी पर हमला
: बस एक कॉलम की खबर' ) गत 14 सितंबर को नीतीश कुमार के ईशारे पर इन्हीं
ताराकांत झा ने एक अधिसूचना जारी कर प्रेमकुमार मणि की बिहार विधान परिषद
की सदस्यता समाप्त कर दी है। मणि पर अपने दल की नीतियों (सवर्ण आयोग के
गठन) का विरोध करने का आरोप है।
राजनीतिक रूप से देखें तो नीतीश के नेतृत्व वाली राजग सरकार एक डरी हुई
सरकार है। नीतीश कुमार की न कोई अपनी विचारधारा है, न कोई अपना बडा वोट
बैंक ही है। भारत में चुनाव जातियों के आधार पर लडे जाते हैं। बिहार में
नीतीश कुमार की स्वेजातीय आबादी 2 फीसदी से भी कम है। कैडर आधारित भाजपा
के बूते उन्हें पिछले दो विधान सभा चुनावों में बडी लगने वाली जीत हासलि
हुई है। इस जीत का एक पहलू यह भी है कि वर्ष 2010 के विधान सभा चुनाव में
लालू प्रसाद के राष्ट्रीलय जनता को 20 फीसदी वोट मिले जबकि नीतीश कुमार
के जदयू को 22 फीसदी। यानी दोनों के वोटो के प्रतिशत में महज 2 फीसदी का
अंतर था।
नीतीश कुमार पिछले छह सालों से अतिपिछडों और अगडों का एक अजीब सा पंचमेल
बनाते हुए सवर्ण तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं। इसके बावजूद
मीडिया द्वारा गढी गयी कद्दावर राजनेता की उनकी छवि हवाई ही है। वे एक
ऐसे राजनेता हैं, जिनका कोई वास्तविक जनाधार नहीं है। यही जमीनी स्थिति,
एक सनकी तानाशाह के रूप में उन्हें काम करने के लिए मजबूर करती है। इसके
अलावा, कुछ मामलों में वे 'अपनी आदत से भी लाचार' हैं। दिनकर ने कहा है -
'क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो/ उसे क्या जो विषहीन, दंतहीन,
विनित सरल हो'।
कमजोर और भयभीत ही अक्सर आक्रमक होता है। इसी के दूसरे पक्ष के
रूप में हम प्रचंड जनाधार वाले लालू प्रसाद के कार्यकाल को देख सकते हैं।
लालू प्रसाद के दल में कई बार विरोध के स्वर फूटे लेकिन उन्होंने कभी
भी किसी को अपनी ओर से पार्टी से बाहर नहीं किया। मुख्यमंत्री की
कुर्सी पर नजर गडाने वाले रंजन यादव तक को उन्होंने सिर्फ पार्टी के पद
से ही हटाया था। दरअसल, लालू प्रसाद अपने जनाधार (12 फीसदी यादव और 13
फीसदी मुसलमान) के प्रति आश्वपस्त रहते थे।
इसके विपरीत भयभीत नीतीश कुमार बिहार में लोकतंत्र की भावना के लिए
खतरनाक साबित हो रहे हैं। वे अपना विरोध करने वाले का ही नहीं, विरोधी का
साथ देने वाले के खिलाफ जाने में भी सरकारी मशीनरी का हरसंभव दुरूपयोग कर
रहे हैं। लोकतंत्र को उन्होंने नौकरशाही में बदल दिया है, जिसमें अब
राजशाही और तानाशाही के भी स्पष्ट लक्षण दिखने लगे हैं।
बिहार को देखते हुए क्या यह प्रश्न अप्रासंगिक होगा कि
भारतीय जनता पार्टी के ब्राह्मण (वादी) नेता, वकील और परिषद के वर्तमान
सभापति ताराकांत झा ने जिन तीन लोगों को परिषद से बाहर किया है वे किन
सामाजिक समुदायों से आते हैं ? सैयद जावेद हसन (अशराफ मुसलमान), मुसाफिर
बैठा (धोबी, अनुसूचित जाति ) और अरूण नारायण (यादव, अन्य पिछडा वर्ग )। मुसलमान, दलित और पिछडा।
क्या यह संयोग मात्र है ? क्या यह भी संयोग है कि बिहार विधान
परिषद में 1995 में प्रो. जाबिर हुसेन के सभापति बनने से पहले तक पिछडे
वर्गों के लिए नियुक्ति में आरक्षण की व्यवस्था तथा अनुसचित जातियों के
लिए प्रोन्निति में आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं थी ? जाबिर हुसेन के
सभापतित्व् काल में पहली बार अल्पसंख्यक, पिछडे और दलित समुदाय के
युवाओं की परिषद सचिवालय में नियुक्तियां हुईं। इससे पहले यह सचिवालय
नियुक्तियों के मामले में उंची जाति के रसूख वाले लोगों के बेटे-बेटियों,
रिश्तेतदारों की चारागाह रहा था। क्या आप इसे भी संयोग मान लेंगे कि
जाबिर हुसेन के सभापति पद से हटने के बाद जब नीतीश कुमार के इशारे पर
कांग्रेस के अरूण कुमार 2006 में कार्यकारी सभापति बनाए गये तो उन्होंने
जाबिर हुसेन द्वारा नियुक्ते किये गये 78 लोगों को बर्खास्त कर दिया और
इनमें से 60 से अधिक लोग वंचित तबकों से आते थे ? (देखें, फारवर्ड प्रेस,
अगस्त , 2011 में प्रकाशित रिपोर्ट -'बिहार विधान परिषद सचिवालय में
नौकरयिों की सवर्ण लूट') क्या हम इसे भी संयोग ही मान लें कि सैयद
जावेद हसन, मुसाफिर बैठा और अरूण नारायण की भी नियुक्तियां इन्हीं जाबिर
हुसेन के द्वारा की गयीं थीं ?
जाहिर है, बिहार में जो कुछ हो रहा है, उसके संकेत बहुत बुरे हैं। मैं
बिहार के पत्रकारों, लेखक मित्रों तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं का आह्वान
करना चाहूंगा कि जाति और समुदाय के दायरे तोड कर एक बार विचार करें कि हम
कहां जा रहे हैं ? और इस नियति से बचने का रास्ता क्या है ?
मुसाफिर बैठा
अरूण नारायण
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