Monday, September 26, 2011

कॉरपोरेट मीडिया की दलाली पर पहली किताब आयी…Corporate media,Dalal Street.शुक्र है कि 2010 में नीरा राडिया कांड हुआ। इससे पहलेपेड न्यूज घोटाला हो चुका

कॉरपोरेट मीडिया की दलाली पर पहली किताब आयी…/शुक्र है कि 2010 में नीरा राडिया कांड हुआ। इससे पहले 2009 में बड़े पैमाने पर पेड न्यूज घोटाला हो चुका था। इन दो घटनाओं से मीडिया में कोई नयी बात नहीं हुई। हुआ सिर्फ इतना कि जो छिपा था, वह दिखने लगा।
26 September 2011

यह किताब राजकमल प्रकाशन से अभी अभी छप कर आयी है।

♦ दिलीप मंडल

शुक्र है कि 2010 में नीरा राडिया कांड हुआ। इससे पहले 2009 में बड़े पैमाने पर पेड न्यूज घोटाला हो चुका था। इन दो घटनाओं से मीडिया में कोई नयी बात नहीं हुई। हुआ सिर्फ इतना कि जो छिपा था, वह दिखने लगा। अब भारत में मीडिया उपभोक्ताओं का एक हिस्सा अब पहले से ज्यादा समझदार है और अपनी राय बनाने और चैनलों और अखबारों को समझने के लिए बेहतर स्थिति में है। इसके लिए हमें खास तौर पर नीरा राडिया का शुक्रगुजार होना चाहिए। यह बताने के लिए कि देश कैसे चलता है और मीडिया कैसे काम करता है।


मीडिया के संदर्भ में नीरा राडिया कांड अपवाद नहीं है। पब्लिक रिलेशन और लॉबिंग के क्षेत्र में तेजी से उभरने वाली नीरा राडिया के टेलीफोन कॉल इनकम टैक्स विभाग ने रिकॉर्ड कराये थे। नीरा राडिया के महत्व का अनुमान लगाने के लिए शायद यह जानकारी काफी होगी कि वे देश के दो सबसे बड़े औद्योगिक घराने – टाटा समूह और रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड यानी रतन टाटा और मुकेश अंबानी के लिए एक साथ काम करती थीं। नीरा राडिया जिन कंपनियों का पब्लिक रिलेशन संभालती हैं, वह काफी लंबी है। यह बातचीत दूसरे कॉरपोरेट दलालों, उद्योगपतियों, नेताओं के साथ ही पत्रकारों से की गयी थी। इस बातचीत के सार्वजनिक होने के बाद मीडिया की छवि को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। खासकर इन टेपों में पत्रकार जिस तरह से आते हैं और लॉबिंग तथा दलाली में लिप्त होते हैं, उसके बारे में जानना सनसनीखेज से कहीं ज्यादा तकलीफदेह साबित हो सकता है। खासकर उन लोगों के लिए, जिनके मन में समाचार मीडिया को लेकर अब भी कुछ रुमानियत बाकी है, जो अब भी मानते हैं कि तमाम गड़बड़ियों के बावजूद समाचार मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इन टेप से यह बात भी निर्णायक रूप से साबित होती है कि चैनलों और अखबारों में जो छपता-दिखता है, उसका फैसला हमेशा मीडिया संस्थानों में नहीं होता।

इस कांड की सबसे पॉपुलर व्याख्या यह है कि मीडिया में कुछ मछलियां पूरे तालाब को गंदा कर रही हैं। मीडिया वैसे तो शानदार काम कर रहा है लेकिन कुछ लोग यहां गड़बड़ हैं जिनकी साजिश भरी हरकतों की वजह से मीडिया बदनाम हो रहा है। इस कांड को लेकर मीडिया की प्रतिक्रिया चुप्पी बरतने से लेकर कॉस्मेटिक किस्म के उपाय करने के दायरे में रही। इस कांड में लिप्त पाये गये पत्रकार आम तौर पर अपने पदों पर बने रहे, लेकिन कुछ पत्रकारों को नौकरी गंवानी पड़ी तो किसी का कॉलम बंद हुआ तो किसी को कुछ हफ्तों के लिए ऑफ एयर यानी पर्दे से दूर रखा गया। इसे व्यक्तिगत कमजोरी या गड़बड़ी या भ्रष्टाचार के तौर पर देखा गया। लेकिन राडिया कांड मीडिया के कुछ लोगों के बेईमान या भ्रष्ट हो जाने का मामला नहीं है। भारतीय समाचार मीडिया स्वामित्व की संरचना और कारोबारी ढांचे की वजह से कॉरपोरेट इंडिया का हिस्सा है। कॉरोपोरेट इंडिया के हिस्से के तौर पर यह काम करता है और इसी भूमिका के तहत मीडिया और मीडियाकर्मी दलाली भी करते हैं। मीडिया के काम और दलाल के रूप में इसकी भूमिका में कोई अंतर्विरोध नहीं है। कॉरपोरेट पत्रकार का कॉरपोरेट दलाल बन जाना अस्वाभाविक नहीं है।

वैसे भी इस बहस को राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने की कोशिश हुई है कि लॉबिंग को कानूनी तौर पर मान्यता दे दी जाए। इसे भ्रष्टाचार के समाधान के तौर पर पेश किया जा रहा है। टेलीविजन पर इसे लेकर कार्यक्रम और बहसें हो रही हैं, लेख लिखे जा रहे हैँ। सीएनएन आईबीएन चैनल में इस बारे में आयोजित राजदीप सरदेसाई के एक कार्यक्रम में तो फर्जीवाड़ा करके यह बताने की कोशिश की गयी कि देश के लोग लॉबिंग को कानूनी रूप दिये जाने के समर्थक हैं। इसके लिए फर्जी ट्विटर एकाउंस से 5 मैसेज भेजे गये और सभी मैसेज लॉबिंग के पक्ष में थे। जब एक ब्लॉगर ने यह चोरी पकड़ ली और इंटरनेट पर इसे लेकर शोर मचने लगा, तो राजदीप सरदेसाई ने सॉरी कहकर मामले को निबटाने की कोशिश की और कहा कि कोशिश की जाएगी कि आगे ऐसी गलती न हो। यह मामला भूल-चूक का नहीं था, क्योंकि सभी फर्जी ट्विटर मैसेज लॉबिंग के समर्थन में भेजे गये थे।

यह राजदीप सरदेसाई की नीयत या बेईमानी का सवाल नहीं है। यह कोई गलती या चूक भी नहीं है। कॉरपोरेट मीडिया यही करता है क्योंकि वह यही कर सकता है। कॉरपोरेट सेक्टर अगर चाहता है कि लॉबिंग को कानूनी रूप दे दिया जाए तो मीडिया का दायित्व बन जाता है कि वह इसके लिए माहौल बनाए। अगर मीडिया ऐसा न करे, तो उसे अपवाद कहेंगे। कॉरपोरेट मीडिया भारत के उद्योग जगत के साथ एकाकार है और दोनों के हित भी साझा हैं।

यह छवियों के विखंडन का दौर है। एक सिलसिला सा चल रहा है, इसलिए कोई मूर्ति गिरती है तो अब शोर कम होता है। इसके बावजूद, 2010 में भारतीय मीडिया की छवि जिस तरह खंडित हुई, उसने दुनिया और दुनिया के साथ सब कुछ खत्म होने की भविष्यवाणियां करने वालों को भी चौंकाया होगा। 2010 को भारतीय पत्रकारिता की छवि में आमूल बदलाव के वर्ष के रूप में याद किया जाएगा। देखते ही देखते ऐसा हुआ कि पत्रकारिता का काम और पत्रकार सम्मानित नहीं रहे। वह बहुत पुरानी बात तो नहीं है जब मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था। लेकिन आज कोई यह बात नहीं कह रहा है। कोई यह बात कह भी रहा है तो उसे पोंगापंथी करार दिया जा सकता है। मीडिया की छवि जनमाध्यमों में भी बदली है। एक समय था, जब फिल्मों में पत्रकार एक आदर्शवादी, ईमानदार शख्स होता था, जो अक्सर सच की लड़ाई लड़ता हुआ विलेन के हाथों मारा जाता था। अब पत्रकार मसखरा (आमिर खान की पीपली लाइव) है, विघ्नसंतोषी (अमिताभ बच्चन की पा) है, दुष्ट (रण) है। वह अमानत में खयानत करने के लिए आता है।

मीडिया का स्वरूप पिछले दो दशक में काफी बदल गया है। मीडिया देखते ही देखते चौथे खंभे की जगह, एक और धंधा बन गया। मीडिया को एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के साथ जोड़ दिया गया और पता चला कि भारत में यह उद्योग 58,700 करोड़ रुपये का है। अखबार और चैनल चलाने वाली कंपनियों का सालाना कारोबार देखते ही देखते हजारों करोड़ रुपये का हो गया। मुनाफा कमाना और मुनाफा बढ़ाना मीडिया उद्योग का मुख्य लक्ष्य बन गया। मीडिया को साल में विज्ञापनों के तौर पर साल में जितनी रकम मिलने लगी, वह कई राज्यों के सालाना बजट से ज्यादा है।

पर यह सब 2010 में नहीं हुआ। कुछ मीडिया विश्लेषक काफी समय से यह कहते रहे हैं कि भारतीय मीडिया का कॉरपोरेटीकरण हो गया है और अब उसमें यह क्षमता नहीं है कि वह लोककल्याणकारी भूमिका निभाये। भारत में उदारीकरण के साथ मीडिया के कॉरपोरेट बनने की प्रक्रिया तेज हो गयी और अब यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। ट्रस्ट संचालित “द ट्रिब्यून” के अलावा देश का हर मीडिया समूह कॉरपोरेट नियंत्रण में है। पश्चिम के मीडिया के संदर्भ में चोमस्की, मैकचेस्नी, एडवर्ड एस हरमन, जेम्स करेन, मैक्वेल, पिल्गर और कई अन्य लोग यह बात कहते रहे हैं कि मीडिया अब कॉरपोरेट हो चुका है। अब भारत में भी मीडिया के साथ यह हो चुका है।

मीडिया का कारोबार बन जाना दर्शकों और पाठकों के लिए चौंकाने वाली बात हो सकती है, लेकिन जो लोग भी इस कारोबार के अंदर हैं या इस पर जिनकी नजर है, वे जानते हैं कि मीडिया की आंतरिक संरचना और उसका वास्तविक चेहरा कैसा है। लोकतंत्र में सकारात्मक भूमिका निभाने की अब मीडिया से उम्मीद भी नहीं है। चुनावों में मीडिया जनमत को प्रभावशाली शक्तियों और सत्ता के पक्ष में मोड़ने का काम करता है और इसके लिए वह पैसे भी वसूलता है। हाल के चुनावों में देखा गया कि अखबार और चैनल प्रचार सुनिश्चित करने के बदले में रेट कार्ड लेकर उम्मीदवारों और पार्टियों के बीच पहुंच गये और उसने खुलकर सौदे किये। मीडिया कवरेज के बदले कंपनियों से भी पैसे लेता है और नेताओं से भी। जब वह पैसे नहीं लेता है तो विज्ञापन लेता है। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार विज्ञापन के बदले पैसे नहीं लेते, बल्कि कंपनियों की हिस्सेदारी ले लेते हैं। इसे प्राइवेट ट्रिटी का नाम दिया गया है। मीडिया कई बार सस्ती जमीन और उपकरणों के आयात में ड्यूटी की छूट भी लेता है। सस्ती जमीन का मीडिया अक्सर कोई और ही इस्तेमाल करता है। प्रेस खोलने के लिए मिली जमीन पर बनी इमारतों में किराये पर दफ्तर चलते आप देश के ज्यादातर शहरों में देख सकते हैं।

मीडिया हर तरह की कारोबारी आजादी चाहता है और किसी तरह का सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं निभाता, लेकिन 2008-09 की मंदी के समय वह खुद को लोकतंत्र की आवाज बताकर सरकार से राहत पैकेज लेता है। मंदी के नाम पर मीडिया को बढ़ी हुई दर पर सरकारी विज्ञापन मिले और अखबारी कागज के आयात में ड्यूटी में छूट भी मिली। लेकिन यह नयी बात नहीं है। यह सब 2010 से पहले से चल रहा था।

2010 में एक नयी बात हुई। एक पर्दा था, जो उठ गया। इस साल भारतीय मीडिया का एक नया रूप लोगों ने देखा। वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की मालकिन नीरा राडिया दिल्ली की अकेली कॉरपोरेट दलाल या लॉबिइस्ट नहीं हैं। ऐसे कॉरपोरेट दलाल देश और देश की राजधानी में कई हैं। 2009 इनकम टैक्स विभाग ने नीरा राडिया के फोन टैप किये थे, जो लीक होकर बाहर आ गये। नीरा राडिया इन टेप में मंत्रियों, नेताओं, अफसरों और अपने कर्मचारियों के साथ ही मीडियाकर्मियों से भी बात करती सुनाई देती हैं। इन टेप को दरअसल देश में राजनीतिशास्त्र, जनसंचार, अर्थशास्त्र, मैनेजमेंट, कानून आदि के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। इन विषयों को सैकड़ों किताबे पढ़कर जितना समझा सकता है, उससे ज्यादा ज्ञान राडिया के टेपों में है।

क्या उम्मीद की कोई किरण है?

ऐसे समय में जब मीडिया पर भरोसा करना आसान नहीं रहा (अमेरिकी मीडिया के बारे में एक ताजा सर्वे यह बताता है कि वहां 63 फीसदी पाठक और दर्शक यह मानते हैं कि मीडिया भरोसे के काबिल नहीं है…) तब लोग क्या करें? यह मुश्किल समय है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस दौर में नागरिक पत्रकारिता का एक नया चलन भी जोर पकड़ रहा है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मीडिया-कॉरपोरेट और नेताओं के रिश्तों के बारे में अखबारों, पत्रिकाओं और चैनलों पर खबर आने से पहले ही राडिया कांड राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ चुका था। मास मीडिया को लेकर बहुचर्चित और प्रशंसित ‘एजेंडा सेटिंग थ्योरी’ यह कहती है कि मीडिया किसी मुद्दे पर सोचने के तरीके पर हो सकता है कि निर्णायक असर न डाल पाए लेकिन किन मुद्दों पर सोचना है, यह मीडिया काफी हद तक तय कर देता है। तो राडिया-मीडिया कांड में ऐसा कैसे हुआ कि मीडिया में कोई बात आये, उससे पहले ही वह बात लोकविमर्श में आ गयी। नीरा राडिया के बारे में मुख्यधारा के मीडिया में पहला लिखा हुआ शब्द ओपन मैगजीन ने छापा। टीवी पर इस बारे में पहला कार्यक्रम इसके बाद सीएनबीसी टीवी18 चैनल पर हुआ, जिसे करण थापर ने एंकर किया। इसके बाद द हिंदू ने इस बारे में पहले संपादकीय पन्ने पर और बाद में समाचारों के पन्ने पर सामग्री छापी। आउटलुक ने इस बारे में कई ऐसे तथ्य सामने लाये, जिनका ओपन ने भी खुलासा नहीं किया था। मेल टुडे और इंडियन एक्सप्रेस ने भी इस बारे में छापा। हिंदी मीडिया की बात करें, तो दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में दो पेज की सामग्री छापी गयी। एनडीटीवी ने बरखा दत्त को सफाई का मौका देने के लिए 47 मिनट का एक कार्यक्रम किया (एक घंटे का कार्यक्रम 13 मिनट पहले ही अचानक समेट दिया गया)। इससे पहले तक, जब मुख्यधारा के मीडिया में कोई भी राडिया-बरखा-वीर-चावला कांड को नहीं छाप/दिखा रहा था तो लोगों को इसकी खबर कैसे हो गयी और यह मुद्दा चर्चा में कैसे आ गया?

यह संभव हुआ इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की सक्रियता की वजह से। जब कॉरपोरेट मीडिया राडिया कांड के बारे में कुछ भी नहीं बता रहा था तो लोग इंटरनेट पर पत्रकारिता कर रहे थे और इस कांड से जुडी सूचनाएं एक दूसरे तक पहुंचा रहे थे। फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, यूट्यूब आदि मंचों पर यह पत्रकारिता हुई। यह पत्रकारिता उन लोगों ने की जिन्होंने शायद कभी भी पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं की थी, लेकिन जो किसी मसले को महत्वपूर्ण मान रहे थे और उससे जुड़ी सूचनाएं और लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। यह नागरिक पत्रकारिता है। इसमें कोई गेटकीपर नहीं होता।

नागरिक पत्रकारिता ने दरअसल पत्रकारिता की विधा को लोकतांत्रिक बनाया है। इसमें पढ़ने या देखना वाला यानी संचार सामग्री का उपभोक्ता, सक्रिय भूमिका निभाने लगता है। पत्रकारिता के तिलिस्म को तोड़ने में इसकी बड़ी भूमिका है। ट्विटर और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिए आज अपनी बात पहुंचाना पहले की तुलना में काफी आसान हो गया है। जो बात मुख्यधारा में नहीं कही जा सकती, वह इन माध्यमों के जरिए कही जा सकती है। परंपरागत पत्रकारिता के भारी तामझाम और खर्च से अलग यह नयी पत्रकारिता है।

पश्चिमी देशों में नयी मीडिया की ताकत टेक्नोलॉजी के विस्तार की वजह से बहुत अधिक है। अभी भारत में इंटरनेट शुरुआती दौर में है। इंटरनेट तक पहुंच के मामले में भारत दुनिया के सबसे दरिद्र देशों की लिस्ट में है। लेकिन भारत में भी इसकी ताकत बढ़ रही है। गूगल के अनुमान के मुताबिक, भारत में इस समय इंटरनेट के 10 करोड़ से ज्यादा उपभोक्ता है। चीन के 30 करोड़ और अमेरिका के 20.7 करोड़ की तुलना में यह संख्या छोटी जरूर है, लेकिन भारत इस समय इंटरनेट के सबसे तेजी से बढ़ते बाजारों में से एक है।

इसके आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि नागरिक पत्रकारिता का असर यहां भी बढ़ेगा। मुख्यधारा के मीडिया की सीमाएं हैं और वहां जगह न मिलने वाले समाचारों को इन वैकल्पिक माध्यमों में जगह मिलेगी। मुख्यधारा के मीडिया से अलग रह गये समुदायों के लिए भी यह वैकल्पिक मंच बनेगा। ऐसा होने लगा है। यह सही है कि ऐसा पहले शहरी क्षेत्रों में होगा और कम आय वर्ग वाले शुरुआती दौर में इस पूरी प्रक्रिया से बाहर रहेंगे। इसके बावजूद संचार माध्यमों में लोकतंत्र मजबूत होगा। प्रेस और चैनल की तुलना में यह कम खर्चीला माध्यम है।

इस तरह के वैकल्पिक माध्यमों को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं। इस माध्यम की बढ़ती ताकत के साथ ही इंटरनेट पर कॉरपोरेट क्षेत्र का दखल भी बढ़ रहा है। ज्यादा संसाधनों के जरिए वे छोटे मंचों और नागरिक पत्रकारिता करने वालों की आवाज को दबाने की कोशिश करेंगे। प्रतिरोध को वे अपने दायरे में समेटने की कोशिश भी करेंगे। विकिलीक्स के मामले में दुनिया ने देखा कि लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों ने किस तरह सूचनाओं और सूचनाएं देने वालों का दमन करना चाहा। भारत में सरकार का चरित्र पश्चिम की सरकारों से ज्यादा अनुदार है और इंटरनेट पर पहरा बिठाने की कोशिश यहां भी होगी। सूचना और जनसंचार माध्यमों का लोकतांत्रिक होना समाज और देश के लोकतांत्रिक होने से जुड़ी प्रक्रिया है। इन उम्मीदों, चिंताओं और आशंकाओं को बीच ही मीडिया के संदर्भ में राडिया कांड को देखा और पढ़ा जाना चाहिए।

dilip mandal(दिलीप मंडल। सीनियर टीवी जर्नलिस्‍ट। सक्रिय फेसबुक एक्टिविस्‍ट। कई टीवी चैनलों में जिम्‍मेदार पदों पर रहे। इन दिनों अध्‍यापन कार्य से जुड़े हैं। उनसे dilipcmandal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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