Thursday, September 1, 2011

इनके पास आलोचना का हुनर है, विकल्‍प की दृष्टि नहीं!/अन्ना के आंदोलन की वैचारिकी और उसकी दिशा : अरुंधती ‘ग्रासरुटवाद’ का शिकार(one more point of view).

इनके पास आलोचना का हुनर है, विकल्‍प की दृष्टि नहीं!

1 September 2011 13 Comments

अन्ना के आंदोलन की वैचारिकी और उसकी दिशा : अरुंधती ‘ग्रासरुटवाद’ का शिकार

♦ कौशल किशोर

अन्ना के आंदोलन की वैचारिकी और उसकी दिशा अप्रैल में ही साफ हो गयी थी। यह आंदोलन ‘अराजनीति की राजनीति’ पर शुरू से ही आधारित रहा है। इसके संचालन की सारी जिम्मेदारी तथा इसके कर्ताधर्ता एनजीओ वाले थे। राजीतिक दलों व संगठनों, यहां तक कि रैडिकल संगठनों को आंदोलन से दूर रखा गया था। मंच के पास फटकने तक नहीं दिया गया था। इसलिए जो लोग इस आंदोलन के पीछे एनजीओ की बात ला रहे हैं, वे कोई नयी बात नहीं ला रहे हैं। इस आंदोलन के आरंभ से ही यह बात साफ थी। संभव है, यह बात उस वक्त उन्हें नहीं दिख रही हो।

जरूरी सवाल यह है कि जो समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की ताकतें हैं, वे इस आंदोलन के प्रति क्या रुख रखें, उनका नजरिया क्या हो? किसी भी क्रांतिकारी के लिए यह जरूरी होता है कि वह समाज में घटने वाली घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करे, उससे सीखे और इसी आधार पर अपने व्यवहार की दिशा तय करे। इस आंदोलन के बारे में सिर्फ यह कह देना कि सारा मीडिया व एनजीओ प्रायोजित था, यह अधूरी सच्चाई होगी। द्वंद्ववाद यही कहता है कि किसी भी ऐसे आंदोलन के कारण भारतीय समाज में मौजूद है, जिससे इस आंदोलन ने जन्म लिया। यह भी विचार का विषय है कि क्यों वामपंथी संगठन जिनके ये स्वाभाविक मुद्दे हैं, उन पर वे कोई बड़ी पहलकदमी न ले पाये और उनकी भी हालत बहुत कुछ अन्य सत्ताधारी दलों जैसी बनी रही। क्या वजह है कि प्रकाश करात से लेकर अरुंधती राय तक मात्र आलोचना से आगे नहीं बढ़ पाते? क्या इससे यह नहीं लगता कि आज आत्मालोचन इनके राजनीतिक व्यवहार की वस्तु नहीं रह गया है? यही कारण है कि आलोचना करते हुए ये कोई विकल्प नहीं पेश कर पा रहे हैं। इसीलिए यह मात्र ‘आलोचना के लिए आलोचना’ है। अरुंधती राय को लेकर भी यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि वे भी अपने को एक्टिविस्ट के रूप में पेश करती हैं।

लेनिन ने कहा था कि जब शासक वर्ग के लिए अपने पुराने ढांचे को बनाये रख पाना तथा पुराने तरीके से शासन कर पाना दिन-दिन कठिन होता जाए तथा जनता के लिए भी इस ढांचे में रह पाना संभव न रह जाए, यह हालत व्यवस्था परिवर्तन की मांग करती है। आज हालत कमोबेश ऐसी ही है। शासक वर्ग के लिए पुराने तरीके से काम करना दिन-दिन मुश्किल होता जा रहा है। वह बचे-खुचे लोकतंत्र को खत्म कर देने पर तुला है। सेना व अर्द्धसैनिक बलों पर उसकी निर्भरता बढ़ती जा रही है। देश को वह इमरजेंसी जैसी हालतों की तरफ ढकेल रहा है। दूसरी तरफ अन्ना जैसे आंदोलन सुधारात्मक कदम के द्वारा लोकतंत्र व शासक वर्ग को संजीवनी देने वाले हैं, जिसका उद्देश्य ‘व्यवस्था परिवर्तन’ के नाम पर वास्तविक परिवर्तन के संघर्ष को रोक देना है। ‘अराजनीति की राजनीति’ शासक वर्ग का ही वैचारिक हथियार है। एनजीओ इस सुधारवाद के हाथ-पांव हैं। ‘दमन की राजनीति’ और ‘अराजनीति की राजनीति’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

इसलिए आज मुख्य संघर्ष सुधारवाद और क्रांतिवाद के बीच का है। यह सरल न होकर जटिल संघर्ष है। और इस संघर्ष की द्वंद्वात्मकता तथा गति विज्ञान को न समझ पाने की वजह से ही इस संबंध में अरुंधती राय कहीं न कही ‘ग्रासरूटवाद’ का शिकार हो गयी हैं। अरुंधती राय अपनी प्रखरता के लिए मशहूर हैं और हमें उनसे अपेक्षा है कि वे और गहरे में जाएंगी तथा एक विकल्प के साथ आएंगी। जनता के वास्तविक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए यह जरूरी है।

(कौशल किशोर। सुरेमनपुर, बलिया, यूपी में जन्‍म। जनसंस्‍कृति मंच, यूपी के संयोजक। 1970 से आज तक हिन्दी की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। रेगुलर ब्‍लॉगर, यूआरएल है

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