Friday, August 26, 2011

'डर लगता है-'बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

'डर लगता है'
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दिव्या आर्य

बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

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अन्ना हज़ारे के आंदोलन को मीडिया ने बहुत तफ़्सील से अपने समाचारों में दिखाया है.

पिछले दस दिनों से कभी तिहाड़ जेल तो कभी रामलीला मैदान पर पल-पल की ख़बरें जुटाने के लिए तैनात रहीं महिला पत्रकारों के मुताबिक वहां काम करने का जोश अब ठंडा हो गया है.

आम लोगों को चाहे ऐसा लगे कि पत्रकार होने की वजह से अन्ना हज़ारे के आंदोलन को नज़दीक से देख पाना एक बेहतरीन अवसर है, लेकिन इनके मुताबिक ये अनुभव खट्टा ज़्यादा और मीठा कम है.

मधुलिका एक समाचार एजेंसी में काम करती हैं. वो मुझसे बात करना शुरू करती हैं तो अचानक कई लड़के हमें घेर लेते हैं. हम उस भीड़ से बाहर निकलकर एक कोने में जाते हैं तो वो आराम से बात कर पाती हैं.

मधुलिका के मुताबिक एक महिला के पत्रकारिता का हिस्सा बनते ही ये मान लिया जाता है कि वो बद्तमीज़ी से निपटने को तैयार है. ऐसे में अक़्सर ये समझाना मुश्किल हो जाता है कि भीड़ एक महिला पत्रकार को कैसे परेशान करती है.

रामलीला मैदान में चल रहे आंदोलन पर वो कहती हैं, "यहां जैसे स्कूली बच्चे और युवाओं की तादाद बढ़ती जा रही है, वो नारेबाज़ी करने, महिलाओं को देखने, बेरोकटोक उनकी तस्वीरें खींचने के लिए आ रहे हैं, जैसा करने की छूट वो सड़कों पर महसूस करते हैं."
रात में पत्रकारिता

स्मृति एक टेलिविज़न समाचार चैनल में काम करती हैं, यानि दिन या रात किसी भी समय काम हो सकता है. लेकिन उनका मानना है कि रात के समय रामलीला मैदान में शराब पीकर लोग जमा हो जाते हैं और ऐसे में महिला पत्रकार किसी हाल में यहां काम नहीं कर सकतीं. हालांकि दिन में काम करने के भी उनके बहुत सुखद अनुभव नहीं हैं.

उस व़क्त को मैं सचमुच डर गई थी, कुछ समझ नहीं आ रहा था, शराब की बदबू और ढेर सारे लोग, आख़िरकार एक पुरुष सहयोगी को बुलाया तो उनकी मदद से ही मैं मैदान से सुरक्षित निकल पाई.

सरोज, पत्रकार

स्मृति बताती हैं, "पहले तो यहां जुटे लोगों को देखकर लगता था कि सभी समर्थक हैं, पर अब जो लड़के यहां इकट्ठा होते हैं उनसे बात करो तो ना उन्हें आंदोलन के बारे में, ना अन्ना के बारे में ही कोई जानकारी होती है."

एक और टेलिविज़न समाचार चैनल में काम करने वाली सरोज कहती हैं कि उन्हें अनशन के नवें दिन जब रात के समय रामलील मैदान आना पड़ा तो वो अचानक जनता के बीच घिर गईं.

उन्होंने फोन कर अपने दफ़्तर में कहा कि अब वो वहां नहीं ठहर पाएंगी.

सरोज ने कहा, "उस वक्त को मैं सचमुच डर गई थी, कुछ समझ नहीं आ रहा था, शराब की बदबू और ढेर सारे लोग, आख़िरकार एक पुरुष सहयोगी को बुलाया तो उनकी मदद से ही मैं मैदान से सुरक्षित निकल पाई."

हालांकि एक अख़बार से जुड़ी शिप्रा का अनुभव अलग रहा है. वो कहती हैं कि अन्य बड़े आयोजनों से उलट यहां महिलाएं सुरक्षित महसूस कर रही हैं क्योंकि यहां बहुत शालीनता और सभ्यता से प्रदर्शन किया जा रहा है.
बदलता स्वरूप

पत्रकार स्मृति के मुताबिक कई समर्थक सिर्फ हुड़दंग मचाते हैं और अश्लील टिप्पणियां करते हैं.

लेकिन ऐसी आवाज़ें कम ही सुनाई देती हैं. एक समाचार एजेंसी में काम करने वाली अनु अप्रैल में जन्तर-मन्तर पर अन्ना हज़ारे के अनशन की रामलीला मैदान के प्रदर्शन से तुलना करती हैं.

अनु कहती हैं, "यहां अब मेला सा लगा है, जैसा इन लोगों का आचरण हैं, ये लोग नहीं समझते कि ये बर्ताव इस आंदोलन को ही नुकसान पहुंचाएगा."

अनु कहती हैं के मुताबिक माहौल बदल गया है, पहले जगह छोटी थी, और सब आराम से भजन और संगीत के ज़रिए अपनी बात रखते थे, लेकिन अब इस बड़े मैदान में विशेष तौर पर कुछ लोगों के ख़िलाफ या अन्ना के समर्थन में ही सही, पर ग़लत तरीके से नारे लगाए जा रहे हैं.

जन्तर-मन्तर की छवि ने अनु के मन में एक अलग ही उम्मीद जगाई थी, पर प्रदर्शन के इस बदलते स्वरूप ने उन्हें निराश किया है.

रामलीला मैदान में भद्दे नारों और बद्तमीज़ लड़कों से कई बार रूबरू मैं भी हुई और अनु के आकलन को समझ सकती हूं. बीती रात कुछ मोटर साइकिल सवार लड़कों ने पुलिस के साथ मार-पीट भी की. इससे पहले एक पुरुष पत्रकार के साथ भी कुछ समर्थकों ने मार-पीट की थी.

आंदोलन से आकर्षित होने वाले लोगों की संख्या के साथ-साथ उसका स्वरूप बदला है ये समझ बढ़ रही है. ज़ाहिर है इससे अन्ना के समर्थकों के बीच पत्रकारिता, महिलाओं और पुरुषों के लिए भी और चुनौतीपूर्ण प्रतीत हो रही है.

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