Wednesday, February 3, 2010

ek bahas jissse mein sahmat hoon, aur saath bhi...vibha

WWराष्ट्र, संयुक्त राष्ट्र और हिंदी

संयुक्त राष्ट्र संघ की छह आधिकारिक भाषाएं हैं।
हिंदी इनमें नहीं है। वैसे तो भारत के संविधान के मुताबिक और हाल में गुजरात उच्च
न्यायालय द्वारा याद करवाए गए निर्णय के अनुसार हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा ही
नहीं है। वह तो सिर्फ राजभाषा है और राजकाज में उसका जितना अटपटा और... व्याकरण के
हिसाब से जितना अश्लील इस्तेमाल होता है, वह अपने आप में अलग कहानी है।

संयुक्त राष्ट्र संघ
की आधिकारिक भाषाओं में सबसे पहले चीनी यानी मंदारिन हैं जिसको उपलब्ध आंकड़ो के
अनुसार 87 करोड़ 40 लाख लोग बोलते है। फिर अंग्रेजी है जिसको 34 करोड़ दस लाख लोग
बोलते हैं। फिर स्पेनिश है जिसको 32 करोड़ 20 लाख लोग बोलते हैं। फिर रूसी है जिसे
16 करोड़ 70 लाख लोग बोलते है। फिर फ्रेंच हैं जिसे 7 करोड़ 20 लाख लोग बोलते हैं और
फिर अरबी है जिसे 4 करोड़ 20 लाख लोग बोलते हैं।

यह आंकड़े इंटरनेट की
शोध सहायता विकीपीडिया से लिए गए है और छह साल पुराने है। इनमें जरूर कुछ न कुछ
परिवर्तन हुआ होगा। मगर इन्हीं आंकड़ों के अनुसार चीनी के बाद सबसे ज्यादा बोली
जाने वाली भाषा हिंदी है। इसे 36 करोड़ 60 लाख लोग अपनी पहली भाषा के तौर पर
इस्तेमाल करते हैं। वैसे भी हिंदी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी भाषा
है।

आगे बढ़े इसके पहले
आपके लिए एक सूचना। संयुक्त राष्ट्र संघ के सभागार में आज तक पहली और आखिरी जो
हिंदी फिल्म दिखाई गई है वह लगे रहो मुन्ना भाई है। हमारे वर्तमान विदेश राज्य
मंत्री शशि थरूर की पहल पर ही यह शो हुआ था, उन्होंने ही फिल्म का परिचय करवाया था
और समारोह में निदेशक राजकुमार हिरानी और लेखक अभिजात जोशी के अलावा एक्टर बमन
इरानी भी थे जिन्हें मंच पर बुलाया गया तो लोगों ने खड़े हो कर तालियां बजाई।

वैसे भी जिन महात्मा
गांधी की जन्मतिथि को संयुक्त राष्ट्र ने एक राजकीय दिवस घोषित किया गया है, उनकी
भी तमन्ना यही थी कि हिंदी को पूरे तौर पर राष्ट्र भाषा का दर्जा दिया जाए। भारत
की संविधान सभा में सेठ गोविंद दास का यह प्रस्ताव मंजूर कर लिया गया था। बाद में
पता नहीं हुआ, भारत की कोई राष्ट्र भाषा ही नहीं रही। हिंदी सिर्फ राजभाषा बन
कर रह गई। भारत शायद दुनिया का अकेला
राष्ट्र होगा जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है।

पाकिस्तान तक की
राष्ट्रभाषा उर्दू है जो भाषा विज्ञान के हिसाब से कोई भाषा है ही नहीं। इसका
व्याकरण हिंदुस्तानी है और लिपि फारसी से ली गई है। शब्दकोष पर्शियन अरैबिक और
तुर्की की भाषाओं से लिया गया है और भाषा विज्ञान इसे हिंदुस्तानी के नाम से खरी
बोली का ही एक रूप मानते हैं। उनका मानना है कि हिंदी और उर्दू एक ही भाषा के दो
रूप हैं और सामाजिक भाषावाद में इनकी अलग अलग मान्यता नहीं है। उर्दू के गालिब और
अहमद फराज से ले कर हफीज जालंधरी को मेहंदी हसन और गुलाम अली से ले कर आबिदा परवीन
तक ने गाया है और इनके बोल पूरे समाज में फैले हैं। अभी हाल तक हिंदी फिल्मों की
भाषा भी ज्यादातर वही होती थी जिसे उर्दू कहा जाता है। हिंदी भाषी इलाकों में ये
फिल्में हिट होती रही क्योंकि ये हिंदी फिल्में नहीं थी, हिंदुस्तानी फिल्में थी।

हम सब जो एक वैश्विक
समाज में रह रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि हिंदी सिर्फ भारत की भाषा नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र को अरबी के प्रति इतना मोह क्यों हैं, यह पता नहीं। रूसी और चीनी
भी अपने देशों से बाहर अपवाद स्वरूप ही बोली जाती है जबकि हिंदी के भाषा
वैज्ञानिकों में जर्मन भी हैं, अमेरिकी भी हैं और ब्रिटिश भी।

हिंदी की बजाय
अंग्रेजी को वैश्विक भाषा का दर्जा देने पर ऐतराज करने की बात करने का नैतिक
अधिकार शायद हम भारतीयों को नहीं है। हम लोग अपने बच्चों से क ख ग सुनने की बजाए ए
बी सी डी सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। हिंदी कविता की बजाए जिंगल बेल्स उनके मुंह
कहना ज्यादा अच्छा लगता है। हमारी सरकारी अकादमियों में हिंदी या ज्यादातर भारतीय
भाषाएं- बांग्ला को छोड़ कर क्योंकि बांग्ला समाज का भाषाई दर्प प्रचंड हैं- हाशिए
पर पड़ी रहती है। समितियों में जो लोग नियुक्त किए जाते हैं वे अपनी भाषा के प्रति
सचेत होने की वजह से नहीं बल्कि राजनैतिक संपर्कों और जुगाड़वाद के कारण किए जाते
हैं। ऐसे में हमें हिंदी की बात करने का हक तो नहीं हैं।

फिर भी इस बात से
इंकार कौन कर सकता है कि हिंदी विश्व की सबसे बड़ी भाषाओं में से एक हैं और इसकी एक
बहुत गौरवशाली परंपरा है। मगर हम इतिहास को कब तक धो पोंछ कर आले में सजाते
रहेंगे? हमे अपने वर्तमान और भविष्य में हिंदी की हैसियत का सवाल क्यों परेशान
नहीं करता? हम क्यों हिंदी की किताबें नहीं खरीदते? एक मामूली लेखक होने के नाते,
जिसकी पांच किताबें हिंदी में और दो अंग्रेजी में छप चुकी हैं, इसका दोष मैं हिंदी
के प्रकाशकों पर डालेंगे जिन्हें खुद शुद्व हिंदी बोलना अपवाद स्वरूप ही आता है और
जो किताबें समाज के लिए नहीं, पुस्तकालयों में आम खरीद के लिए छापते हैं। यही वजह
है कि हिंदी के प्रकाशक बडे ग़ाड़ियों में घूमते हैं और लेखक साइकिलों पर।

जहां तक संयुक्त
राष्ट्र का सवाल है तो उसे भी पता होगा कि दुनिया के ग्यारह देशों में जिनमें
अमेरिका और इंग्लैंड भी शामिल हैं, दस लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। इसके अलावा 22
और देशों में एक लाख हिंदी भाषी बसे हुए हैं और हिंदी ही उनकी मूल भाषा हैं। इसलिए
अगर हिंदी को महत्व नहीं दिया गया तो यह वास्तव में एक ऐतिहासिक भूल होने जा रही
है। मैं उन मित्रों से सहमत नहीं हूं कि अगले बीस पच्चीस साल बाद हिंदी का लोप हो
जाएगा लेकिन यह खतरा जरूर है कि हिंदी समाज में हिंदी दूसरे नंबर की भाषा रह
जाएगी। दक्षिण दिल्ली की एक बस्ती संगम विहार में मदर डेरी खुली तो वहां दूध से ले
कर पनीर और सब्जियों के नाम भी अंग्रेजी में लिख कर लगा दिए गए जिनका अर्थ बेचारे
दुकानदार को भी पता नहीं था। ऐसे तो हमारी सरकार चलती है। संयुक्त राष्ट्र में
हिंदी को मान्यता दिलवाने के पहले भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा की मान्यतादिलवाने का आंदोलन, अभियान और हठ होना चाहिए। कोई शक?See More(Alok Tomar...facebook))



बिहार में बच्चों का सहकार्य, एक अनूठा उदाहरण !
अनकही पर 3:16 PM प्रस्तुतकर्ता रजनीश के झा (Rajneesh K Jha)

Biहार के मुजफ्फरपुर जिला अन्तर्गत " बाल विकास खज़ाना " नामक एक अनोखा सहकारी बैंक है जो बच्चों द्वारा ही चलाई जा रही है । यहाँ गरीब बच्चे अपनी कमाई से पैसे बचाकर जमा भी करते हैं और उन्हें छोटे मोटे रोज़गार के लिए क़र्ज़ भी दी जाती है ताकि वे खुद के रोज़गार शुरू कर सकें ।


१६ वर्षीय आशना के पिता की दूकान उनकी बीमारी की वजह से बंद हो गई थी । उनके परिवार का सहारा आशना ही थी । उसने "बाल विकास खज़ाना" से अपने बल बूते पर 2500 क़र्ज़ लिया और अपने पिता के बंद कारोबार को फिर से शुरू करवाया। आज उसके पिता फिर से तजिया बनाते है ।


इस अनोखे बैंक का मैनेजेर मोहम्मद करीम है । यहाँ बच्चे चाहे वे रद्दी उठाते हों या कारखानों में छोटे मोटे काम करते हों , वे अपनी कमाई में से कुछ पैसे बचाकर इस बैंक में जमा करते है । जरूरत पड़ने वे यहाँ से क़र्ज़ भी ले सकते हैं।




इस बैंक में दो तरह के क़र्ज़ की व्यवस्ता है , पहला " कल्याण" और दूसरा विकास ", जिसे अलग अलग श्रेणी तय कर दी जाती है ।




मुस्कान नामक रद्दी उठाने वाले बच्चे का कहना है कि अपनी कमाई का आधा हिस्सा वह अपनी माँ को देता है और आधा बाल विकास खजाना में जमा करता है ।




उन बच्चों का साहस और आत्म विश्वास देख ऐसा लागता है भगवान उनकी मदद अवश्य करेंगे और वे सफल भी होंगे ।




साभार :- आर्यावर्त




Dear bhaiyon or bhanon

Namaste

May be this human interest story and idea is not novel but this effort can be infectious(not like sneeze or swine flu).....to do some good effort apne aas pass. And if you'll don't like it plz delete it. I do feel that media create awareness, give information, but one can add personal one to one effort as it has different relevance, as everyone all the time do not watch informative programmes sincerely to enhance their knowledge on TV....unless they themself or someone around them is facing it, neither can ask what they has in mind without being online and if their call get selected, ....so be ready for my workshops in your offices and neighbourhood, for local family persons with your all support...and my effor, time to time....aakhir hum sab sirf kagaz ke sher nahin hain.

Rgds

Thanks

Vibha Tailang(1983 Batch)

No comments: