Monday, February 22, 2010

खाद्य सुरक्षा, किसान और गणतंत्र...ek bahas jissse mein sahmat hoon aur bolti rahi hoon.

Friday, February 12, 2010
लो क सं घ र्ष !: पिछले दो वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मंचों पर खाद्य सुरक्षा का मुद्दा गरमाया हुआ है। दुनिया के तमाम बुद्धिजीवी से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। आंकड़ों का जमघट लगा हुआ हैं। विकासशील देश हों या विकसित देश, संयुक्त राष्ट्र संघ हो या यूरोपियन यूनियन, सबकी चिंता है खाद्य संकट। इस बात की गहरी और सही चिंता व्यक्त की जा रही है कि आने वाले दिनों में विकसित देश अपनी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए खाद्य पदार्थों को दुनिया भर में हथियार की तरह प्रयोग न करने लग जायें। हमारा गणतंत्र 60 वर्ष का हो रहा है। हमारा संविधान मानवीय मूल्यों की गारंटी देता है और भारत के प्रत्येक नागरिक को आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार भी प्रदान करता है। नागरिक के आत्मसम्मान और जीने का अधिकार को दिलाने की गारंटी संघ और राज्य की सरकार पर समान रूप से है। घनघोर दारिद्र की स्थिति में, खाद्यान्न की उत्पादन और उत्पादकता की गिरावट की दौर में संविधान में दिये गये जीने के अधिकार और आत्मसम्मान की हिफाजत कैसे की जाये यह मूल बिन्दु है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्र में 27 प्रतिशत तथा शहरी इलाके में लगभग 23.8 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। हालांकि ये आंकड़े वास्तविकता से कम है। अगर सरकारी आंकड़ों को ही सही माना जाये तो 26 करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी तो दूर एक वक्त के लिए भोजन का जुगाड़ सुनिश्चित करना-कराना आसान काम नहीं है। भारत गांवों का देश है। 72 फीसदी आबादी गांव में ही रहती है। भारत के 80 प्रतिशत से ज्यादा किसान लघु तथा सीमांत किसान हैं। इन लघु और सीमांत किसानों के पास जहां वर्ष 1970-71 में 33.37 मिलियन हैक्टेयर कृषि भूमि थी वहीं 2000-01 में यह घटकर 21.12 मिलियन हैक्टेयर रह गई है। आर्थिक आसमानता, गरीबी, मूल्यवृद्धि, उपभोक्तावाद, बाजारवादी संस्कृति, निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय मानसिकताओं सहित चतुर्थिक आर्थिक संकट ने ग्रामीण संयुक्त परिवार तोड़ डाले। कृषि जोत के सिकुड़ते आकार में कृषि तकनीक के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उत्पादकता बढ़ाने के अवसरों के सामने कठिनाइयां पैदा कीं, जो स्वभाविक है। छोटी जोतों के कारण किसान न तो वो अधिक पंूजीनिवेश वाली प्रौद्योगिकी को अपनाने को तैयार होते हैं और न ही फसल-बाद प्रबंधन के लिए अधिक लागत लगा सकते हैं। इन किसानों को उन्नत खेती और पूंजी निवेश के लिए सरकार द्वारा अस्सी फीसदी सहायता और संरक्षण दिये जाने की जरूरत है। तभी ये किसान अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर खाद्य सुरक्षा सुरक्षित करने में योगदान दे सकेंगे। सरकार के सहायता से ही गांव से शहरों की ओर 9 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा पलायन भी रोका जा सकता है।
विश्व भर में खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता के साथ विचार-विमर्श हो रहा है। उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए नये उपाय सुझाये जा रहे हैं। वहीं ऊर्जा स्रोत के विकल्प के रूप में ऐथनाॅल के उत्पादन के लिए कृषि उत्पादों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अमरीका में वर्ष 2006 में 20 प्रतिशत मक्के का इस्तेमाल एथिनाॅल बनाने के लिए किया गया। 2007-08 में अमरीका में 80 मिलि. टन मक्के का उपयोग ऐथनाॅल उत्पादन में किया। यूरोपियन यूनियन के देशों ने 68 प्रतिशत वनस्पति तेलों का तथा ब्राजील ने 50 प्रतिशत गन्ने की उपज का इस्तेमाल जैव-ईंधन बनाने में प्रयोग किया। क्या यह सब विश्व की खाद्य सुरक्षा को संकट नहीं पहुंचा रहे हैं?विश्व में अनाज के स्टाक घट रहे हैं।
1950-51 में देश के सकल फसल क्षेत्र केवल 132 मिलि. हेक्टेयर था वह आज बढ़कर लगभग 188 मिलि. हेक्टेयर हो गया है। इसी अवधि में कुल फसल क्षेत्र 119 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 141 मिलि. हेक्टेयर हो गया। भूभाग की नजर से अभी भी भारत में फसल क्षेत्र तथा सिंचित क्षेत्र बढ़ाये जाने की अपार संभावनाएं हैं। देश में लगभग 13.8 मिलि. हेक्टेयर कृषि योग्य परती भूमि तथा 7.61 मिलि. हेक्टेयर भूमि उसर भूमि है। इन क्षेत्रों को विशेष प्रयास कर फसलों के लिए तैयार किया जा सकता है और भूमिहीन खेत मजदूरों और गरीब किसानों में वितरित करने की आवश्यकता है।
देश का एक बड़ा हिस्सा असिंचित फसल क्षेत्र के रूप में मौजूद है। 10 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी इस विशाल भूभाग को सिंचित या अर्धसिंचित नहीं बना पाये। कुल मिलाकर केवल 48.5 मिलि. हेक्टेयर क्षेत्र में 1 से ज्यादा बार फसल बोयी जाती है। योजना दर योजना बेहतर जलप्रबंधन, जलसंरक्षण तथा किसानों को सिंचाई की सुविधा दिये जाने का कार्यक्रम तो बना परन्तु सिंचाई के विस्तार के लिए योजनाओं में धनराशि का आवंटन बहुत नगण्य रहा। आजाद हिन्दुस्तान में लगभग 2000 के आसपास सिंचाई परियेाजनाएं जो केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गयीं आज भी बीच अधर में छोड़ दी गई हैं। हजारों करोड़ सरकारी रूपया बर्बाद हो गया। लघु, सीमांत, गरीब किसान प्राकृतिक वर्षा पर आधारित होकर अपनी खेती करते हैं।
भारत में आजादी के बाद देश में 1950-51 में कुल खाद्यान्न कृषि का क्षेत्रफल 97.32 मिलि. हेक्टेयर था जो 2006-07 में बढ़कर 123.47 मिलि. हेक्टेयर हो गया। इस अवधि में जहां गेहूं का कृषि क्षेत्र में 9.95 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 28.04 मिलि. हेक्टेयर हो गया और चावल का कृषि-क्षेत्र 30.81 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 43.42 मिलि. हेक्टेयर हो गया। आजादी के बाद प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन तो बढ़ा है परन्तु यह आज भी दुनिया के कई देशों से भारत की विभिन्न फसलों की उत्पादकता की तुलना की जाये तो भारत काफी पीछे नजर आता है। धान के मामल में चीन और अमरीका की उत्पादकता हमसे दोगुना से भी अधिक है। मिस्र और आस्ट्रेलिया की भारत से तीन गुना अधिक है। गेहूं के मामले में भी मिस्र और फ्रांस और जर्मनी की उत्पादकता भारत से दोगुना से अधिक है। जापान और चीन भी गेहूं के मामले में हमसे बहुत आगे हैं। मक्के की उत्पादकता मिस्र, फ्रांस और जर्मनी में भारत से तीन गुना ज्यादा तथा अमरीका में चार गुना से अधिक है। दलहनों की उत्पादकता के मामलों में भी भारत काफी पीछे है। अमरीका और चीन में दलहनों की उत्पादकता भारत से तीन गुना अधिक है। मिस्र और जर्मनी हमसे पांच गुना अधिक पैदा करते हैं और फ्रांस में उत्पादन भारत की तुलना में प्रति हेक्टेयर सात गुना ज्यादा है।
नेशनल सेम्पल सर्वे के 55वें दौर के सर्वे के अनुसार वर्ष 2011-12 में देश में 102.93 मिलियन टन चावल, 74.84 मिलियन टन गेहूं, 16.99 मिलियन टन दाल तथा कुल 212.89 मिलियन टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। देश में वर्तमान में दालों और तिलहन की काफी कमी है और हर वर्ष लगभग 5 मिलियन टन खाद्य तेल देश में विदेशों से आयात होता है।
नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन द्वारा वर्ष 1990, 2000 तथा 2004-05 में किये गये 55वें तथा 61वें राउंड के सर्वे के आंकड़ों पर तुलनात्मक दृष्टि डाली जाये तो पता चलता है कि भारत में ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति मासिक खपत घटी है। दालों की खपत अनाज की खपत से ज्यादा घटी है। अर्थात शरीर में प्रोटीन की मात्रा घटी है। भारत में आबादी का एक अच्छा-खास बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहा है और औसत प्रति व्यक्ति आय भी काफी सीमित है। ऐसी स्थिति में यदि भारत में खाद्यान्न उपलब्ध भी हो तब भी जरूरी नहीं है कि सभी लोग उसे खरीद कर उसका उपभोग कर सकें। जरूरत इस बात की है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को केन्द्र और राज्य सरकार सब्सिडी देकर अनिवार्य रूप से खाद्यान्न उपलब्ध कराये ताकि वह जीने के अधिकार से वंचित न होने पायें। सार्वजनिक वितरण प्रणाली प्रभावी ढंग से इस समस्या का हल हो सकती है।
कुछ अर्थशास्त्री आंकड़े प्रदर्शित कर यह प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं कि खाद्यान्न उत्पादन के मामले में भारत आत्मनिर्भर हो गया है और हमारे सामने खाद्य सुरक्षा का कोई संकट नहीं है। एनडीए और यूपीए की दोनों सरकारें केन्द्र में अपने शासनकाल में खाद्य सुरक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की आत्मप्रशंसा में आकंठ डूबी रहीं। तिलहन उत्पादन के क्षेत्र में रह-रह कर कुछ प्रगति होती है और फिर रूक जाती है। सरसों का उत्पादन वर्ष 2007-08 में 2006-07 की तुलना में 74.38 मिलियन टन से घटकर 58.03 मिलि. टन रह गया। वर्ष 1980-81 के बाद से देश में चावल तथा गेहूं की उत्पादकता तथा उत्पादन दोनों की वृद्धि दर में लगातार गिरावट दर्ज की गयी है। यहां तक कि 2000-06 की अवधि में गेहूं की उत्पादकता नकारात्मक रही है। उत्पादन की वृद्धि दर लगातार घटती दिख रही है। भारत में खाद्यान्न उत्पादन की नजर से उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। पंजाब तथा आंध्र प्रदेश दूसरे नंबर है। चावल उत्पादन में पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश क्रमशः आगे बढ़े हुए राज्य हैं। गेहूं की पैदावार में उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा पहले, दूसरे और तीसरे पादान पर है। मोटे अनाजों के उत्पादन में नंबर एक पर कर्नाटक दूसरे पर महाराष्ट्र तथा तीसरे पर राजस्थान है। दलहन के उत्पादन में शीर्ष पर मध्य प्रदेश, दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश तथा तीसरे नंबर पर महाराष्ट्र है। राजस्थान तिलहन के उत्पादन में सबसे आगे है और फिर मध्य प्रदेश तथा गुजरात के नंबर है।
एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2020 तक देश की आबादी बढ़कर 130 करोड़ हो जायेगी और हमारे अनाज की कुल वार्षिक आवश्यकता 342 मिलि. टन हो जायेगी। ऐसी स्थिति में यदि आज ही भारत में अनाज की फसलों की उत्पादकता में तथा उत्पादन में सुधार करने के लिए तात्कालिक और दूरगामी कदम नहीं उठाये तो हमारी मांग को देखते हुए हम काफी पिछड़ जायेंगे। देश में गंभीर खाद्य संकट पैदा हो जायेगा। यह खाद्य संकट राजनैतिक संकट का भी रूप लेगा और विकसित देश हमारी खाद्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादित खाद्य पदार्थ का प्रयोग राजनैतिक हथियार के रूप में करेंगे। यह स्थिति हमारी आजादी और सम्प्रभुता दोनों पर हमला करेगी। ऐसी स्थिति में केन्द्र तथा राज्य सरकारों को कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा किसानों की खेती से मोह भंग होने की स्थिति से पहले ही कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की पहल करनी होगी। हमारी योजनाओं का 60 प्रतिशत धन गांव और खेती पर बेवाक आवंटित करने की पहल करनी होगी। शहरों की विकास की सोच ने गांव की बहुत अनदेखी कर दी अब इसे सुधारना होगा। भारतीय गणतंत्र का हाशिये पर पड़ा विशाल साधारण गण गांव में ही रहता है।

अतुल कुमार अनजान

प्रस्तुतकर्ता Suman पर 6:16 AM

Latest international report says obesity is one of the reason why more n more poor people don't get food.....(though LNJP HOSPITAL in Delhi recently started OPD in their hospital for OBESITY to cure it..., so as Sharad Pawarji's comment in Dec 09 end....increase in poor people population created scarcity of food....quite funny'

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