आज का सच
भाई मेरे
कब तक
झुठलाओगे
पेट की आग को
कब तक बहलाओगे
आंतड़ियों की एइथन को
क्या तुम्हारे मनं में कोई विरोध नहीं उठता?
आखिर कब तक रहोगे
इस कांच के घर में?
अपने पिता और उनके पिता भी
इस्सी कांच के घर में रहे
बल्कि सांस लेने के लिए उन्हें
हवा भी मंगनी पड़ी
अब नहीं होगा मुझसे
बेंत बनना की जिधर झुकाया मुझे
जायेगा उद्धेर झुकुंगी
मेरे कन्धों पर है युवाओं के रक्त का बोझ
मेरी आँखों में जाल रही पलास वन
रोम-रोम में धुखता है
ताज़े सपनों का लाल लहू
एक सवाल फ्हिर मेरे मनं को रोंदता है
कैसे लहलुहान हो गए
काटों के वन में फूलों का सुहाग?
क्यों बैरण चिठ्ठी सि फिर रहें हैं
खली हाथ लोग?
सोचती हूँ,
बस्ता का बोझ कितना भारी
पर कितनी हलकी हो गयी है ज़िन्दगी!
पर में सीख लिया है ,
की अब पेट को पेट
और रोटी को रोटी कहूँगी
क्योंकि मेंने महसूस किया है
पेट की आग को
देखा है
भूक और रोटी के महायुद्ध को
और इस्सलिये
मेंने जान लिया है
की भूक फ्हूल सि या कागज़ सि नहीं
रोटी सि बुझती है
यही है मेरे भाई,
आज का सच!!
विभा तैलंग
1983 बैच
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