Wednesday, August 4, 2010

चीन से रिश्तों के बीच एक धार्मिक दीवार- DALAI LAMA--4/8/10

प्रतिदिन/आलोक तोमर

चीन से रिश्तों के बीच एक धार्मिक दीवार

(EVERY PERSON HAS TWO SIDES OF ITS COIN...FLIP/OTHER SIDES ARE LEAST KNOWN BY PEOPLE...HERE IT IS SHOWN BY WRITER)

अचानक कई
पाठकाें के पत्र ई मेल के जरिए आने लगे हैं और कुछ तो फोन भी करने लगे हैं। उनका
आम तौर पर सवाल होता है कि चीन की दूतावास से कितना पैसा मिलता है कि दलाई लामा को
...हर समय गालियां देते रहते हो। एक साहब ने तो पूछा है कि क्या दलाली करने के लिए
सिर्फ चीन ही मिला था। मुझे पूरा विश्वास है कि इनमें से किसी ने दलाई लामा को
सामने नहीं देखा होगा और उनके साथ समय भी नहीं बिताया होगा।



दलाई लामा
अपने हिसाब से बहुत सारे धर्म गुरुओं में से एक हैं और भारत में उनसे ज्यादा
लोकप्रिय मुरारी बापू और दूसरे ढोल नगाड़े ले कर प्रवचन करने वाले बाबा लोग है। मगर
भारत सरकार दलाई लामा को तिब्बत देश का राष्ट्र प्रमुख मानती हैं और चूंकि यह देश
इतना काल्पनिक हैं कि अपना खर्चा भी नहीं उठा सकता इसलिए भारत सरकार दलाई लामा के
दाने पानी से ले कर मुर्गे और गो मांस तक का खर्चा देती है और हिमाचल प्रदेश के
धर्मशाला में उनकी राजधानी भी चलाती है।



आज हिसाब
हो ही जाए। दलाई लामा को तिब्बत का राष्ट्र प्रमुख कहा जाता है। हिमालय के उत्तर
में बल्कि अपने उत्तराखंड के काफी करीब यह इलाका हैं और यहां एक जमाने में बौद्व
धर्म की महायान और वज्रयान धाराओं की दीक्षा दी गई थी। यही इस खूबसूरत इलाके में
धर्म की मुख्य धाराएं हैं। सोलह हजार फीट की औसत ऊंचाई वाले तिब्बत को सियाचिन की
तरह संसार की छत भी कहा जाता है। तिब्बत को एक प्रांत के तौर पर पहली बार सातवीं
शताब्दी में राजा स्वगस्तन गाेंंपो ने एक किया था। 1640 से ले कर 1950 तक यहां एक
प्रांतीय सरकार थी जिसके सर्वोच्च अधिकारी धर्म गुरु के तोर पर दलाई लामा माने
जाते थे।



दलाई लामा
का मतलब इन मौजूदा दलाई लामा से नहीं है। ये तो मूल दलाई लामा की अंधविश्वासों के
आधार पर रची गई कार्बन कॉपी है। मगर तिब्बत पर राज करने की तमन्ना दलाई लामा
परंपरा के भिक्षुओं में हमेशा से रही है। 1913 में तिब्बत में क्विंग राजवंश का
शासन था मगर तेरहवे दलाई लामा ने क्विंग के प्रतिनिधियों और सेनाओं को धर्म की कसम
दिला कर इलाके से बाहर भेज दिया। तिब्बत को स्वायत्त और आजाद घोषित कर दिया गया।
इस तथाकथित आजादी को दुनिया के किसी देश ने मान्यता नहीं दी। 1945 में संयुक्त
राष्ट्र ने भी तिब्बत को चीन का ही एक भाग माना।



1950 में
अहिंसक बौद्वों ने चीन के साथ युद्व किया और हार गए। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में
खाम इलाके पर कब्जा कर लिया और अगले दलाई लामा ने अगले ही साल चीन सरकार के साथ
समर्पण की संधि पर दस्तखत कर दिए। अगले दलाई लामा वही हैं जो धर्मशाला में रहते
हैं और जिन्हें भारत सरकार पाल पोस रही है। 1959 में उन्हाेंने तिब्बत में बगावत
करने की कोशिश की थी मगर चीनी सेना ने उन्हें सीमा में रहने के लिए कहा तो दलाई
लामा अपने चेलों के साथ सीमा लांघ कर भारत चले आए और जवाहर लाल नेहरू जो पंचशील के
सिद्वांत का चीन के साथ ही समझौता कर चुके थे, उन्होंने सारे शील त्याग कर दलाई
लामा को धर्मशाला में शरण दे कर उनकी निर्वासित सरकार बना दी। इस निर्वासित सरकार
को दुनिया के किसी भी देश और संयुक्त राष्ट्र तक की मान्यता प्राप्त नहीं है।



धर्मशाला
में शरण मिलने के बाद और भारत का रक्षा कवच मिल जाने से रातों रात साहसी हो गए दलाई
लामा ने ऐलान कर दिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं है। चीन ने भारत पर हमला किया
और इसके लिए पूरे तौर पर दलाई लामा जिम्मेदार है। वैसे भी तिब्बत का नक्शा उठा कर
देखिए तो आप पाएंगे कि बहुत सारे बौद्व और गैर बौद्व धार्मिक संगठन तिब्बत के अलग
अलग इलाकों का शासक होने का दावा कर रहे हैं।



तिब्बत की
हालत बहुत कुछ कश्मीर जैसी हैं। दुनिया के राजनैतिक भूगोल का नियम है कि हर तरफ से
कई देशाें से घिरा कोई भी इलाका स्वायत्त और सार्वभौमिक गणराज्य नहीं बन सकता
क्याेंकि उसे बाकी दुनिया से संपर्क करने के लिए किसी ने किसी देश का रास्ता पकड़ना
पड़ेगा और उस पर आश्रित होना पड़ेगा। तिब्बत के पास समुद्र नहीं है। भारत, चीन और
म्यामांर से उसे रास्ता मांगना पड़ेगा। 19वीं सदी में तो हालत यह हो गई थी कि
ब्रिटिश साम्राज्य हिमालय के उत्तरी इलाकों पर कब्जा करता जा रहा था और
अफगानिस्तान तक उसकी पहुंच हो चुकी थी। उधर रुस केंद्रीय एशिया तक महाशक्ति बनने
का सपना देख रहा था। 1865 में ही ब्रिटेन ने तिब्बत को अपना हिस्सा बताना शुरू कर
दिया था।



1904 में
कर्नल फ्रांसिस के नेतृत्व में एक बड़ी ब्रिटिश फौज तिब्बत भेजी गई और तिब्बत की
राजधानी ल्हासा तक पहुंच गई। अंग्रेजों को डर था कि रूस भी यहां कब्जा करने के लिए
हमला करेगा ब्रिटिश फौजाें के ल्हासा पहुंचने के बाद ब्रिटेन और चीन के बीच
साझेदारी की एक संधि 1906 में हुई और 1910 में निर्वासित क्विंग राजवंश ने फिर
हमला किया, दलाई लामा को उनके महल में कैद कर लिया जहां से फरवरी 1910 में वे भाग
कर तत्कालीन ब्रिटिश भारत में आए। दलाई लामा की परंपरा में भारत भागना कोई नहीं
बात नहीं है। भारत आ कर तेरहवे दलाई लामा चीन को शासक माना और बौद्व भिक्षु परंपरा
को इस शासक का पुरोहित करार दिया। इस संधि के आखिर में लिखा था कि हम आजाद हैं और
हमारी आजादी धार्मिक है। अगले 36 साल तक चीन अपने स्थानीय और दूसरे विश्व युद्व
में लगा रहा। मंगोलिया का मामला सुलझाता रहा और तिब्बत में दलाई लामा के वंशज राज
करते रहे। चीन ने 1913 में मंगोलिया- तिब्बत संधि के जरिए तिब्बत को अपना राज्य
घोषित कर दिया था मगर तिब्बत को अलग देश तो किसी ने नहीं माना।



आज की तारीख में चीन तिब्बत का हिस्सा है और यह बात
भारत आधिकारिक तौर पर मान चुका है। फिर भी दलाई लामा को किसी वृध्दाश्रम में नहीं
भेजा जा रहा। यही गनीमत है। फिलहाल अंतर्राष्ट्रीय मान्यताआें के अनुसार तिब्बत के
शासक नामज्ञाल वांगचुक ट्राइचेन हैं और वे भूटान के शासक परिवार से जुड़े हुए हैं।
चीन तिब्बत में रेल लाइने बिछा चुका है। दलाई लामा के महल को चीन ने संग्रहालय बना
दिया है और वहां अब सरकार बीजिंग से ही चलती है। इसीलिए यह सवाल करना जायज बनता है
कि दलाई लामा आखिर हैं कौन और हम उनका फोकट में सत्कार क्यों कर रहे हैं? किसी के
पास जवाब हो तो मुझे भी बताएं।

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