अन्ना के साथ भी, ख़िलाफ़ भी
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दिव्या आर्य
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
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अन्ना हज़ारे के अनशन के दसवें दिन भी रामलीला मैदान में लोगों का हुजूम रहा.
अन्ना हज़ारे के अनशन के समर्थन में जुट रहे लोगों में कई ऐसे हैं, जो रामलीला मैदान तो पहुंचे हैं लेकिन उनके मन में कई सवाल भी हैं.
अनशन के 10वें दिन भी यहां जुटने वाली भीड़ कम नहीं हुई है, लेकिन उसमें से कुछ स्वर मंच से कही जा रही बातों से अलग हैं.
दिल्ली में प्रॉपर्टी डीलर का काम करने वाले राज पिछले एक हफ़्ते से लगातार रामलीला मैदान आ रहे हैं और मानते हैं कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ छेड़े गए इस जन-आंदोलन के साथ जुड़ना ज़रूरी है.
लेकिन आज वो अन्ना हज़ारे के सहयोगी अरविंद केजरीवाल को ढूंढ रहे हैं.
दरअसल राज लोकपाल विधेयक के सरकारी मसौदे से एक प्रावधान अन्ना के सहयोगियों की ओर से बनाए गए मसौदे में डलवाना चाहते हैं.
राज कहते हैं, “सरकारी मसौदे में ग़ैर-सरकारी संस्थाओं को लोकपाल के दायरे में रखा गया है, ऐसी संस्थाएं अक्सर काले धन को सफेद धन में बदलने का ही काम करती हैं, जन-लोकपाल ने इन्हें अपने दायरे से कैसे छोड़ दिया?”
राज की ही तरह कुछ और लोग भी आंदोलन के सभी पहलुओं से इत्तेफ़ाक ना रखते हुए भी यहां आते रहे हैं.
कीर्ति दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ती है और अपने दोस्तों के साथ यहां आई है. उसका मानना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों का मत बेहद अहम होता है.
कीर्ति कहती है, “लोकपाल क़ानून आने से बहुत फ़ायदा होगा, लोग भ्रष्टाचार करने से पहले सोचेंगे और इसके लिए सभी पक्षों, सभी मसौदों को सुनना और समझना ज़रूरी है.”
बिहार से आए विनय सिंह पूछते हैं कि इतना अहम क़ानून जल्दबाज़ी में लाने की क्या ज़रूरत है? वो कहते हैं, “दो दिन लें या 10 दिन लें, लेकिन सबसे कड़ा मसौदा अपनाया जाना चाहिए क्योंकि ये हम लोगों की ज़िंदगी बदल सकता है.”
बदलता स्वरूप?
सरकारी मसौदे में ग़ैर-सरकारी संस्थाओं को लोकपाल के दायरे में रखा गया है, ऐसी संस्थाएं अक्सर काले धन को सफेद धन में बदलने का ही काम करती हैं, जन-लोकपाल ने इन्हें अपने दायरे से कैसे छोड़ दिया?
राज, अन्ना के समर्थक
रामलीला मैदान में जुटे समर्थकों की संख्या देखकर अहसास होता है कि 10 दिन गुज़र जाने के बावजूद आंदोलन कमज़ोर नहीं पड़ा है.
जो लोग ख़ास तौर पर अन्ना का साथ देने के लिए अलग-अलग जगहों से यहां जमा हुए हैं, वो कई दिन बीतने के बाद भी डटे हुए हैं.
लेकिन भीड़ में दाखिल होकर और मैदान का एक चक्कर काटने पर ये भी साफ़ हो जाता है कि यहां एकत्र लोगों में तमाशबीनों की संख्या भी बहुत बढ़ गई है.
स्कूलों और कॉलेजों से भागकर आए ये युवा झुंड में घूम-घूम कर उदंडता करते नज़र आए.
ये लोग आंदोलन से जुड़े नारों के अलावा कई नेताओं का अपमान करते हुए असभ्य भाषा में नारे भी लगा रहे थे.
यही वो तबका था, जो ढोल-नगाड़ों पर नाच रहा था. अन्ना हज़ारे की सहयोगी किरण बेदी जब मंच से बोल रही थीं तो कई बार रुक कर उन्होंने भी युवाओं के ऐसे झुंडों की ओर इशारा कर उन्हें शांति से भाषण सुनने को कहा.
आंदोलन की शुरुआत से अब 10वें दिन में आए इस बदलाव से अन्ना हज़ारे के कुछ कार्यकर्ता भी इत्तेफ़ाक रखते मिले.
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